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________________ का आश्रय लिया। जहाँ विद्वानों की जन्मजात भाषा संस्कृत और प्राकृत थी वहीं समय की माँग को देखकर अपभ्रंश को विद्वानों ने स्वीकार किया और अपभ्रंश के बाद मरुगुर्जर भाषा को स्वीकृत करते हुए इसी भाषा में रचनाएं प्रारम्भ की। मरुगुर्जर भाषा परवर्ती काल में दो विभागों में बँट गई। राजस्थान प्रदेश की भाषा मरु के स्थान पर राजस्थानी हो गई और गुजरात में गुर्जर के स्थान पर गुजराती हो गई। जनता ने भी इस राजस्थानी भाषा को हृदय से स्वीकार किया और पठन-पाठन भी प्रारम्भ किया। फलतः खरतरगच्छीय आचार्य और मुनि भी राजस्थानी भाषा में लिखने लगे। १५वीं शताब्दी से राजस्थानी भाषा का ही बोलबाला रहा, व्यवहार रहा और २०वीं सदी से राजस्थानी भाषा का स्थान हिन्दी भाषा ने ले लिया। आज के विद्वान् लेखक हिन्दी भाषा में ही लिख रहे हैं। राजस्थानी लेखकों ने अनेक विधाओं को अपनाकर पूजाएं, चौवीसी, वीसी, विवाहलो, कक्क, फागु, रास, चौपई, वेली, छत्तीसी, बत्तीसी, बावनी और बारहमासा आदि संज्ञक में रचनाएं की। साथ ही हार्दिक उद्गारों को प्रकट करने के लिए स्तवन, गीत, स्वाध्याय आदि की स्फुट रचनाएं भी प्रचुर मात्रा में हुई। पूजा - उपासकों के लिए द्रव्य पूजा के अतिरिक्त भाव पूजा की भी परमावश्यकता है। आगम शास्त्रों में द्रव्य और भाव पूजा के प्रचुर उल्लेख प्राप्त होते हैं। पूजा को करते हुए तीर्थंकर के साथ तादात्म्य सम्बन्ध स्थापित करते हुए उच्चतम तीर्थंकर नामकर्म भी उपार्जित किया जा सकता है। इसी आलम्बन को स्वीकार करते हुए खरतरगच्छीय आचार्यों ने सर्वप्रथम पूजाओं का निर्माण किया। पूजा साहित्य में वर्तमान में प्राप्त पूजाओं में प्राचीनतम उपाध्याय साधुकीर्ति रचितं सतरह भेदी पूजा प्रसिद्ध है। इसकी रचना विक्रम संवत् १६१८ पाटण में हुई है। इसके पश्चात् तो पूजाओं की एक विशिष्ट परम्परा चली जो आज भी उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त कर रही है। संख्या की दृष्टि से भी यह पूजा साहित्य दूसरों की अपेक्षा अग्रगण्य है। __ श्रीमद्देवचन्द्र कृत स्नात्र पूजा जो भक्ति रस से सराबोर है स्मरण किए बिना कैसे रहा जा सकता है। यहाँ नवपद पूजा का स्मरण करना अत्यावश्यक है जो सर्व गच्छों के द्वारा मान्य है। इस पूजा में श्रीयशोविजयोपाध्याय द्वारा कृत श्रीपाल रास की ढालें, श्रीज्ञानविमलसूरि के छन्द और देवचन्द्रोपाध्याय के उल्लाले सम्मलित हैं। इन तीनों का समवेत स्वरूप होना ही नवपद पूजा है। यह पूजा तो शास्त्रों का सार है। पूजा साहित्य में लौकिक गीतों के तर्कों का ही प्रयोग किया गया है और लौकिक धुनें ही गेय का आकर्षण केन्द्र बनी हैं। विवाहलो और रासादि - ऐतिहासिक दृष्टि से आचार्यों के जीवन वृत्त का वर्णन करने वाले, आचार्य पदोत्सव का वर्णन करने वाले, स्वर्गवास का वर्णन करने वाले अथवा किसी एक विशिष्ट कार्य का वर्णन करने वाले रास तात्कालीन इतिहास की दृष्टि से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। इन प्राक्कथन XIX Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016106
Book TitleKhartargaccha Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size14 MB
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