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________________ निरक्त कोश ३०२. उद्धारणा (उद्धारणा) उत्प्राबल्येन उपेत्य वा उद्धृतानामर्थपदानां धारणा उद्धारणा ।। (व्यभा १० टी प ८६) __पढ़े हुए अर्थपदों/पाठ की दृढ़ धारणा करना, उन्हें विस्मृत नहीं करना, उद्धारणा है। ३०३. उद्धावण (उद्धावन) उत्प्राबल्येन धावनं उद्धावनम् । (व्यभा २ टी प १३४) शीघ्रगति से दौड़ना उद्धावन है । ३०४. उप्पत्ति (उत्पत्ति) उत्पद्यते यस्मादिति उत्पत्तिः। (व्यभा २ टी प ४४) जिससे उत्पन्न होता है, वह उत्पत्ति है । ३०५. उन्भाम (उद्भ्रम) उत्प्राबल्येन भ्रमन्त्युद्धमाः। (व्यभा ३ टी प ६६) जो निरंतर भ्रमण करते रहते हैं, वे उभ्रम/भिक्षाचर हैं । ३०६. उब्भिय (उद्भिज) उद्भेदनमुद्भित्ततो जाता उद्भिजाः। (आटी प ७०) जो भूमि का उद्भेदन कर बाहर आते हैं, वे उद्भिज/ कीटविशेष हैं। ३०७. उभयतर (उभयतर) आत्मानं परं चाचार्यादिकं तारयन्तीत्युभयतराः। (व्यभा ३ टी प ३) जो स्वयं को तारता है तथा आचार्य आदि की सेवा करता है, वह उभयतर है। ३०८. उम्मग्ग (उन्मार्ग) ऊवं वा मार्गमुन्मार्गम् । (आटी प २३३) जो उर्ध्व बाहर निकलने का मार्ग है, वह उन्मार्ग है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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