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________________ ४६ २४५. आसंदी (आसन्दी ) आसनं ददातीत्यासंदी । जो आसन देती है, वह आसन्दी / कुर्सी है । २४६. आसण (आसन) आसियते जम्हि तमासणं । ' आस्यते - स्थीयते अस्मिन्निति वाऽऽसनम् । जिस पर बैठा जाता है, वह आसन है । २४७. आसम (आश्रम ) गृह हैं २४८. आसम (आश्रम ) आङिति - स्वपरप्रयोजनाभिव्याप्त्या श्राम्यन्ति - खेदमनुभवन्त्यस्मि - नित्याश्रमाः । ( उशाटी प ३१५ ) जिनमें स्व और पर के लिए श्रम किया जाता है, वे आश्रम / आसमन्ताद् श्राम्यन्ति —– तपः कुर्वन्त्यस्मिन्नित्याश्रमः । २५०. आसव (आश्रव ) निरुक्त कोश (सूचू २ पृ ३६१) ( निचू १ पृ ६ ) ( आटी प १३३ ) जहां तपस्वी श्रम / तपस्या करते हैं, वह आश्रम है । २४. आसव (आश्रव ) आ - समन्तात् शृण्वन्ति — गुरुवचनमाकर्णयन्तीत्याश्रवाः । ( उशाटी प ४६ ) जो गुरु-वचनों का पूर्णरूप से श्रवण करते हैं, वे आश्रव / आज्ञाकारी शिष्य हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only ( उशाटी प ६०५ ) आश्रवत्यष्टप्रकारं कर्म यैरारम्भस्ते आस्रवाः । ( आटी प १८१ ) जिन आरम्भों / प्रयत्नों से अष्टविध कर्म का आस्रवण होता है,, वे आश्रव हैं । आश्रूयते— उपायते कर्म एभिरित्याश्रवाः । ( प्रसाटी प १३५ ) जिनके द्वारा कर्मों का उपार्जन किया जाता है, वे आश्रव हैं । १. यत्थ यत्थ आसति निसीदति, तं आसनं । (वि १ / ७१) www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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