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________________ १६ ८२. अण्णायएसि ( अज्ञातैषिन् ) अज्ञातमज्ञातेन एषते - भिक्षते असौ अज्ञातैषी । जो अज्ञात रहकर अज्ञात कुलों में एषणा अज्ञातैषी है । ८३. अंतर (अंतर) न तरितुं शक्यत इति अतरः । जिसे तरना संभव नहीं, वह अतर / समुद्र है । ८४. अतिगमण ( अतिगमन ) अतिक्रम्य गमनं - प्रवेशमतिगमनम् । ८५. अतिमाण ( अतिमान) अतिक्राम्यते येन चारित्रं सोऽतिमाणं । अतिक्रमण कर गमन / प्रवेश करना अतिगमन है । जिसके द्वारा चारित्र का अतिक्रमण अतिमान है । ८६. अतिवात ( अतिपात ) अतिवादिज्जति जेण सो अतिवादो । है । ८७. अतिवातसोय ( अतिपात स्रोतस् ) अतिपतति संसारातो अतिपातसोयं । क्रिया) है | ८८. अत्त (आप्त ) निरुक्त कोश ( उचू पृ २३५ ) करता है, वह ( व्यभा ४ / १ टीप २३) ( आचू पृ ३०७ ) जिसके द्वारा अतिपतन / विनाश होता है, वह अतिपात / हिंसा ( बृटी पृ ६१० ) Jain Education International (सूचू १ पृ २०३) किया जाता है, वह ( आचू पृ ३०७ ) जो संसार से निकालता है, वह अतिपातस्रोत ( ईर्यापथिक जो ज्ञान आदि से व्याप्त है, वह आप्त है । ज्ञानदर्शनचारित्राणि येनाप्तानि स भवत्याप्तः । जिसने ज्ञान, दर्शन और चारित्र को प्राप्त कर लिया है, वह आ है। ज्ञानादिभिराप्यते स्म आप्तः । For Private & Personal Use Only ( व्यभा १० टीप ३५) www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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