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________________ ३२० निरुक्त कोश १६६०. सुरम्म (सुरम्य) सुष्ठु मनांसि रमयतीति सुरम्यः । (राटी पृ २३) __जो मन को भलीभांति रमण कराता है, वह सुरम्य है। १६६१. सुरहि (सुरभि) सौमुख्यकृत् सुरभिः। (अनुद्वाहाटी पृ ६०) जो मुख को सु/प्रसन्न करती है, वह सुरभि है । सुष्ठु रभते सुरभिः। (प्राक १ टी पृ ४८) जिसका सम्यक् आसेवन किया जाता है, वह सुरभि है । जिसकी अधिक कामना की जाती है, वह सुरभि है । १६६२. सुवण्ण (सुवर्ण) शोभनवर्णं सुवर्णम् । (उचू पृ १८५) जिसका वर्ण श्रेष्ठ है, वह सुवर्ण/स्वर्ण है। १६६३. सुविण (स्वप्न) सुप्यते स्वप्नमात्रं वा स्वप्नम् । (उचू पृ १७५) जो सोये सोये लिया जाता है, वह स्वप्न है । जिसमें स्वप्नमात्र का वर्णन है, वह स्वप्न (शास्त्र) है। १६६४. सुविसुद्ध (सुविशुद्ध) . मण-दयण-कायजोगेहि सुठ्ठ विसुद्धो सुविसुद्धो। (दअचू पृ २२८) जो मन, वचन और काया से विशुद्ध है, वह सुविशुद्ध है । १६६५. सुसंभिय (सुसंभृत) सुष्ठु---अतिशयेन संभृताः-संस्कृताः सुसंभृताः । (उशाटी प ४०५) जो अत्यधिक रूप में संभृत/संस्कृत हैं, वे सुसंभृत हैं। १६६६. सुसमा (सुषमा) सुष्ठु समा सुषमा। (स्थाटी प २५) १. रभ्---Embrace, to long for (आप्टे पृ १३२६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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