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________________ ३०४ निरुक्त कोश १६१४. सहसंबुद्ध (स्वयंसम्बुद्ध) सह-आत्मनैव सार्द्धमनन्योपदेशतः सम्यग्-यथावद् बुद्धोहेयोपादेयोपेक्षणीयवस्तुतत्त्वं विदितवानिति सहसंबुद्धः।। (भटी प ८) जो स्वयं अपनी ही आत्म-पवित्रता से संबुद्ध होता है, वह स्वयंसंबुद्ध/तीर्थकर आदि है। १६१५. सहसंबुद्ध (सहसम्बुद्ध) सहसा संबुद्धो सहसंबुद्धो। (उचू पृ १८०) जो सहसा/अकस्मात् संबुद्ध होता है, वह सहसंबुद्ध है। १६१६. सहस्सक्ख (सहस्राक्ष) पंचण्हं से मंतिसयाणं सहस्समक्खीणं । (दश्रुचू प ६४) पञ्चानां मंत्रिशतानां सहस्रमणां भवतीति तद्योगादसौ सहस्राक्षः । (उपाटी पृ १२४) जिसके पांच सौ मंत्री अर्थात् सहस्र आंखें होती हैं, वह सहस्राक्ष इन्द्र है। १६१७. सहा (सभा) सत्--सोभणाविहु जं भयंते सभा ।' जिसमें सज्जन लोग एकत्रित होते हैं, वह सभा है । पोत्थयवायणं वा जत्थ अण्णतो मणुयाण अच्छनट्ठाणं वा सभा। (अनुद्वाहाटी पृ ७६) जहां शास्त्रों का वाचन होता है, वह सभा है। जहां मनुष्य (सोद्देश्य) ठहरते हैं, वह सभा है । १. (क) संतो भजन्त्येतामिति सभा । (अनुद्वामटी प १४६) सह भान्यस्यामिति सभा। (अचि पृ ११०) (ख) 'सभा' शब्द का अन्य निरुक्त सन्यते भज्यते सभा। (अचि पृ ११०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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