SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 329
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६८ १५८३. समुदाण ( समुदान) समिति--सम्यक् प्रकृतिबन्धादिभेदेन देशसर्वोपघातिरूपतया च आदानं स्वीकरणं समुदानम् । ( स्थाटी प १४७ ) सम्यक् आदान / स्वीकरण समुदान ( क्रियाविशेष ) है । १५८४. समुदाण ( समुदान) समेच्च उवादीयते समुदाणं । ( अचू पृ २२० ) जो सामूहिक रूप से ग्रहण किया जाता है, वह समुदान ( भिक्षा) है । १५८५. समुह (समुद्र) समन्तादुन त उन्नावा पृथिवों कुर्वत अनेनेति समुद्रः । है | सह मुद्रा - मर्यादया वर्तन्त इति समुद्राः । ( उचू पृ १७२ ) जो चारों ओर से पृथिवी को आर्द्र कर देता है, वह समुद्र निरुक्त कोश जो मुद्रा / मर्यादा में रहते हैं, वे समुद्र हैं । १. 'समुद्र' के अन्य निरुक्त समुन्दन्ति आर्द्राभवन्ति वर्षाकालनद्योऽस्मात् समुद्रः । (अचि पृ २३८ ) बरसाती नदियां जिससे आर्द्र होती हैं, भरती हैं, वह समुद्र है । सम्यगुद्गतो रोऽग्निरत्र समुद्रः । जिससे र- अग्नि पैदा होती है, वह समुद्र है । चन्द्रोदयात् आपः सम्यगुन्दन्ति क्लिद्यन्ति अत्र समुद्रः । चन्द्रमा की कलाओं के साथ-साथ जिसका जल बढ़ता है, वह समुद्र है । मुदं राति ददाति समुद्रः । जो मुद् / प्रसन्नता प्रदान करता है, वह समुद्र है । Jain Education International ( अनुद्वामटी प ८२ ) मुद्राणि रत्नादीनि तैः सह वर्त्तते इति समुद्रः । ( शब्द ५ पू२७८ ) मुद्र / रत्नों से युक्त है, वह समुद्र है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy