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________________ निरक्त कोश २६१ १५४४. सज्झाय (स्वाध्याय) शोभनं आ–मर्यादया अध्ययनं-श्रुतस्याधिकमनुसरणं स्वाध्यायः । (स्थाटी प ३३५) विधि के अनुसार श्रुत का पारायण करना स्वाध्याय है ।। १५४५. सठ (शठ) शाठ्येति शाममेवेति शठः ।। (उचू पृ १६४) जो शठता/धोखा करता है, वह शठ है। जो प्रियभाषण कर सत्य का शमन अवगुंठन करता है, धोखा देता है, वह शठ है। १५४६. सणप्पय (सनखपद) सह नखैः-नखरात्मकैवर्तन्त इति सनखानि पदानि येषां ते सनखपदाः। (उशाटी प ६६६) जिनके पैर नख से युक्त हैं, वे सनखपद/सिंह आदि हैं। १५४७. सण्णा (संज्ञा) संजानातीति संज्ञा। (सूचू २ पृ ३२७) सम्यक् रूप से जानना संज्ञा है । १५४८. सण्णा (संज्ञा) संज्ञायतेऽनयाऽयं जीव इति संज्ञा । (प्रसाटी प २७३) जिस संवेगात्मक प्रवृत्ति के द्वारा 'यह जीव है'—ऐसा जाना जाता है, वह संज्ञा है । १५४६. सण्णिवाय (सन्निपात) सम्-इति संहतरूपतया नि—इति नियतं पतनं गमन मेकत्रवर्तनं सन्निपातः। (नक ४ टी पृ १६०) १. सुष्ठ आ मर्यादया कालवेलापरिहारेण पौरुष्यपेक्षया वा अध्यायःअध्ययनं स्वाध्यायः (प्रसाटी प ६८) २. संज्ञा-वेदनीय मोहोदयाश्रिता ज्ञानावरणदर्शनावरणक्षयोपशमाश्रिता च विचित्राहारराधिप्राप्तिकिया। (प्रसाटी ५ २७३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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