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________________ २७२ निरुक्त कोश १४४२. विह (विध) विधीयते-क्रियते कार्यजातमस्मिन्निति विधम् । (भटी पृ १४३१) जिसमें कार्य किया जाता है, वह विध/आकाश है। १४४३. विहंगम (विहङ्गम) विहायसा गच्छंतीति विहंगमा। (सूचू १ पृ६८) ___ जो आकाश में विचरण करते हैं, वे विहंगम/पक्षी हैं। विहे-विहायोगतेरुदयादुद्गच्छन्तीति विहङ्गमाः। (दटी प ७१) जो विहायोगति नामकर्म के उदय से उड़ते हैं, वे विहंगम पक्षी हैं। १४४४. विहाण (विधान) विविक्तं-इतरव्यवच्छिन्नं धानं--पोषणं स्वरूपस्य यत् तद् विधानम् । (प्रज्ञाटी प ५०१) जो दूसरों से व्यवच्छिन्न करने वाले स्वरूप का पोषण करता है, वह विधान है। १४४५. विहाय (विहायस्) विशेषेण होयते-त्यजते तदिति विहायः । (भटी पृ १४३१) जिसमें विशेष रूप से वस्तुओं को छोड़ा जाता है|रखा जाता है, वह विहायस्/आकाश है। १४४६. विहार (विहार) विहरन्त्यस्मिन् प्रदेश इति विहारः। (उशाटी प ५४४) जिसमें विहरण किया जाता है, वह विहार प्रदेश है। १४४७. विहार (विहार) विविहपगारेहिं रयं हरइ जम्हा विहारो उ। (व्यभा ४/१/१८) जा विविध प्रकार से कर्मरज का हरण करता है, वह विहार/गीतार्थ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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