SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 283
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५२ निरुक्त कोश १३३३. वणस्सइ (वनस्पति) 'वन षण सम्भक्तौ' (वनति सनति) इति वनस्पतिः। (दअचू पृ७३) जिसका छेदन-भेदन किया जाता है, वह वनस्पति है । १३३४. वणीमग (वनीपक) परेषामात्मदुःस्थत्वदर्शनेनानुकलभाषणतो यल्लभते द्रव्यं सा वनी प्रतीता। तां पिबति-आस्वादयति पातीति वेति बनीपः, स एव वनीपकः। (स्थाटी प ३२६) दूसरों को अपनी दीन-हीन दशा दिखाकर चापलूसी कर, जो द्रव्य-लाभ किया जाता है, वह वनी है। जो इस द्रव्य-लाभ (वनी) का उपभोग करता है, वह वनीपक है । वनुते-प्रायो दायकाभिमतेषु श्रमणादिष्वात्मानं भक्तं दर्शयित्वा पिण्डं याचते इति वनीपकः।। (प्रसाटी प १४६) जो दाताओं को मान्यता के अनुकूल अपने को भक्त बता पिण्ड/ भोजन की याचना करता है, वह वनोपक है। १३३५. वण्ण (वर्ण) वणिज्जति जेण वण्णो। (आचू पृ १७८) वर्ण्यते-- अलंक्रियते गुणवक्रियते शरीराद्यनेनेति वर्णः । (प्रसाटी प ३६४) जो शरीर आदि को विशेष रूप से वणित/अलंकृत करता है, वह वर्ण/रूप-रंग है। वृणीते वृणोति वर्णयति वा तमिति वर्णः। (उचू पृ १०२) जो व्याप्त होता है, वह वर्ण है। जो आनन्द देता है, वह वर्ण है। जो पहचान देता है, वह वर्ण है। १. वनस्पति का अन्य निरुक्तवनस्य पतिः वनस्पतिः । (शब्द ४ पृ २६३) वन में जिसकी अधिकता है, वह वनस्पति है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy