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________________ निरुक्त कोश २४६ विविधान्यन्तराणि-उत्कर्षापकर्षात्मकविशेषरूपाणि निवासभूतानि वा गिरिकन्दरविवरादीनि येषां तेऽमी व्यन्तराः। (उशाटी प ७०१) जिनमें उत्कर्ष और अपकर्ष की अपेक्षा से विशेष अन्तर होता है, वे व्यन्तर हैं। विविध प्रकार के पर्वत, कन्दरा और शून्य-स्थान जिनके निवास-स्थल हैं, वे व्यन्तर हैं। १३१५. वंतासि (वान्ताशिन्) वंतं असिउं शीलं यस्यासौ वन्ताशी। (उचू पृ २३०) __ जो वान्त/त्यक्त वस्तु को खाता है, वह वान्ताशी है। १३१६. वंदण (वन्दन) वन्द्यते—स्तूयतेऽनेन प्रशस्तमनोवाक्कायव्यापारजालेनेति वन्दनम् । (आवहाटी २ प १४) वन्द्यते-पूज्या गुरवोऽनेनेति वन्दनम् । (प्रसाटी प ६) ____जिसके द्वारा स्तुति की जाती है, वह वन्दन है । १३१७. वंसक (व्यंसक) व्यसयतीति व्यंसकः । (दजिचू पृ ५८) जो हेतु दूसरों को भ्रम में डाल देता है, वह व्यंसक (हेतु) १३१८. वक्क (वाक्य) वयियव्वं वक्कं ।। (दअचू पृ १५६) वाच्यत इति वाक्यं । (दजिचू पृ २३४) जो बोला जाता है, वह वाक्य है । १. व्यंसयतिच्छलयति व्यंसकः । (अचि पृ ८८) २. प्रयुज्यमानैरप्रयुज्यमानैर्वा कादिभिविशेषणैः सहितम् उच्यत इति वाक्यम् । (अचि पृ ५६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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