SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 279
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४८ निरक्त कोश १३१०. वइरोयण (वैरोचन) विविधैः प्रकारै रोच्यन्ते-दीप्यन्त इति विरोचनास्ते वैरोचनाः । __ (स्थाटी प १६८) जो विविध प्रकार से रोचित/दीप्त हैं, वे वैरोचन/इन्द्र १३०११. वइस (वैश्य) वित्ति विसंतीति वइस्सा। (आचू पृ ५) जो वृत्ति/व्यापार में प्रवेश करते हैं, वे वैश्य हैं। कलादिभिर्विशन्ति लोकमिति वैश्याः। (सूचू २ पृ ४४२) जो कला आदि के द्वारा लोक में प्रवेश करते हैं, वे वैश्य वणिक् हैं। १३१२. वंकसमायर (वक्रसमाचर) वको–असंजमो तं समायरति वंकसमायरो । जो वक्र—असंयम का समाचरण करता है, वह वक्रसमाचर नाणागइकुडिलो वंको-संसारो तं समायरति वंकसमायरो। (आचू पृ ३४) जो वक्र/संसार-भ्रमण का समाचरण करता है, वह वक्र समाचर है। १३१३. वंजण (व्यञ्जन) जिज्जति जेण अत्थो, वंजणमिति भण्णते ।। (जीतभा १०१०) जिससे अर्थ की अभिव्यंजना होती है, वह व्यंजन/अक्षर १३१४. वंतर (व्यन्तर) विगतमन्तरं-विशेषो मनुष्येभ्यो येषां ते व्यन्तराः । (प्रसाटी प ३३२) जो मनुष्यों के निकट होते हैं, वे व्यन्तर हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy