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________________ २४० निरक्त कोशः जो जीव को अनुरञ्जित/मलिन करता है, वह रज (कर्म) १२६६. रण्ण (राजन्) राजनाद्'-दीपनाद् राजा।' (स्थाटी प १६१) जो मंत्री आदि से सुशोभित होता है, वह राजा है। १२६७. रत्ति (रात्रि) सन्ध्या यतो राजते ---शोभते तेन रात्रिः । (बृटी पृ ८५७) जिससे सन्ध्या शोभित होती है, वह रात्रि है। १२६८. रय (रजस्) रंजयतीति रजः। (सूचू १ पृ ५६) जो रञ्जित/मटमैला कर देती है, वह रज/धली है । रीयत इति रजः। (उचू पृ १६१) जो गति करती है, वह रज/धूली है। १२६६. रयणप्पभा (रत्नप्रभा) रत्नानां प्रभा यस्यां रत्नैर्वा प्रभाति-शोभते या सा रत्नप्रभा । (स्थाटी प ५०१) जो रत्नों से प्रभास्वर है, वह रत्नप्रभा है । १२७०. रयहरण (रजोहरण) रजो ह्रियते-अपनीयते येन तद्रजोहरणम् । (स्थाटी प ३२७) जो रजों का अपहरण/अपनयन करता है, वह रजोहरण (धर्मोपकरण) है। १. राजतेऽमात्यादिभिरिति राजा । २. 'राजा' का अन्य निरुक्तरञ्जयति प्रजामिति वा । (अचि पृ १५४) जो प्रजा को प्रसन्न रखता है, वह राजा है । ३. 'रात्रि' का अन्य निरुक्तराति सुखं रात्रिः। (अचि पृ ३१) जो सुख प्रदान करती है, वह रात्रि है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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