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________________ निरक्त कोश २३६ १२६१. मोहणीय (मोहनीय) मुह्यते येन स मोहः । (उचू पृ ११५) वैचित्र्यमुत्पादयत्यात्मन इति मोहनीयम् ।' जो चित्त में विचित्तता/मूढ़ता पैदा करता है, वह मोहनीय (कर्म) है। मोहयति वैचित्र्यमापादयतीति मोहनीयम् ।। (प्राक १ टी पृ १७) ___ जो संकल्प-विकल्पों की विचित्रता पैदा करता है, वह मोहनीय (कर्म) है। १२६२. रइ (रति) रम्यतेऽनयेति रतिः। (दटी प ७८) जिसके द्वारा (असंयम में) रमण किया जाता है, वह रति (मोहनीय कर्म) है। १२६३. रइयगभोइ (रचितकभोजिन्) रचितकं नाम कांस्यपात्रादिषु पटादिषु वा यदशनादिदेयबुद्ध्या वैविक्त्येन स्थापितं यद्भुक्ते इत्येवंशीलो रचितकभोजी। (व्यभा ३ टी प ११६) जो रचित/पृथक् रूप से स्थापित भोजन का भक्षण करता है, वह रचितकभोजी है। १२६४. रक्खोवग (रक्षोपग) रक्षामुपगच्छन्ति तदेकचित्ततया तत्परायणा वर्तन्ते इति रक्षोपगाः ।। ___ (राटी पृ २७०) जो रक्षा करने में तत्पर हैं, वे रक्षोपग/अंगरक्षक हैं। १२६५. रज (रजस्) जीवस्यानुरञ्जनाद् मालिन्यापादनात् रजः। (विभामहेटी २ १ २३८) १. मद्यपानवद्विचित्तताजनेनेति मोहः । (उशाटी प ६४१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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