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________________ २३४ निरक्त कोश १२३६. मिच्छामि दुक्कड (मिथ्या मे दुष्कृत) मित्ति मिउमद्दवत्ते छत्ति अ दोषाण छायणे होइ । मित्ति य मेराइ ठिओ, दुत्ति दुगुंछामि अप्पाणं ॥ (आवनि १५०५) कति कडं मे पावं डत्तियं डेवेमि तं डवसमेणं । एसो मिच्छादुक्कडपयक्ख रत्थो समासेणं ॥ (आवनि १५०६) मि/मृदुता पूर्वक दोषों का छा/छादन/शोधन करने के लिए मि/मर्यादा/आचारविधि में उपस्थित हो मैं (पापकारी) आत्मा से दु/जुगुप्सा करता हूं और उपशमभाव के द्वारा क/कृतपाप का ड/ अतिक्रमण करता हूं। १२४०. मित्त (मित्र) मेज्जंतो' मेयंति' वा तदिति मित्रं । (उचू पृ १४६) जो स्नेह करता है, वह मित्र है । जो व्यक्ति की योग्यताओं का अनुमापन करता है, वह मित्र १२४१. मिय (मृग) मृग्यते इति मृगः। (उचू पृ २१४) शिकारी द्वारा जिसकी खोज की जाती है, वह मृग है। --- जो तृण आदि का अन्वेषण करता है, वह मृग है। जिसका शिकार किया जाता है, वह मृग है। म्रियते इति मृगः। (उचू पृ २१८) जो मारा जाता है, वह मृग है। १. मिद्यति स्निह्यति मित्रम् । (अचि पृ १६२) २. मिनोति मानं करोति इति मित्रम् । (शब्द ३ पृ ७२२) ३. (क) मृग्यते व्याधर्मगः। (अचि पृ २८६) (ख) मृगयते अन्वेषयति तृणादिकं मृगः । (शब्द ३ पृ ७६४) (ग) मृग-to hunt (आप्टे पृ १२८४) ४. मृ-to kill (आप्टे पृ १२८४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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