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________________ १३८ निरक्त कोश ७१४. ण्हाण (स्नान) स्नात्यनेनेति स्नानम् । (उशाटी ४७६) जिससे व्यक्ति स्नात/शुद्ध होता है, वह स्नान है। ७१५. एहाणीय (स्नानीय) स्नाति जनोऽनेनेति स्नानीयम् । (बृटी पृ २५६) जिससे व्यक्ति स्नान करता है, वह स्नानीय/चूर्ण है । ७१६. एहसा (स्नुषा)' स्नौति श्रवन्ति वा तामिति स्नुषा । (उचू पृ १५०) जो (अपने पुत्र के लिए) क्षरण करती है, वह स्नुषा/पुत्रवधू है। ७१७. तंतज (तन्त्रज) तन्यते इति तंत्रं-वेमविलेखनछनिकादि तत्र जातं तंत्रजं । (उचू पृ ७६) जो ताने-बाने से उत्पन्न होता है, वह तंत्रज कम्बल आदि ७१८. तंतु (तन्तु) तनोत्यसौं तन्यते वा तंतुः। (उचू पृ ७६) जो विस्तृत होता है या किया जाता है, वह तंतु है। ७१६. तंत्र (तन्त्र) तन्यतेऽस्मादर्थ इति तन्त्रम् । (आवनिदी प ४४) जिसके द्वारा अर्थ विस्तार पाता है, वह तंत्र/शास्त्र है । १. (क) स्नौति अपत्यवात्सल्यात् स्नुषा । (अचि पृ ११७) (ख) 'स्नुषा' के अन्य निरुक्तसाधु सादिनीति वा, साधु सानिनीति वा, स्वपत्यं तत्सनोतीतिवा स्नुषा । (नि १२/६) जो भली-भांति बैठती है, भली-भांति प्राप्त करती है, सु/अपत्य प्राप्त करती है, वह स्नुषा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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