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________________ ११० निरुक्त कोश ५६५. छाया (छाया) छयति छिनत्ति वाऽऽतपमिति छाया। (उशाटी प ३८) जो आतप को छिन्न/नष्ट करती है, वह छाया है। ५६६. छिड्ड (छिद्र) छिदः छेदनस्यास्तित्वाच्छिद्रम्। (भटी पृ १४३१) जिसका अस्तित्व छिद्रमय है, वह छिद्र आकाश है। ५६७. छिद्दप्पेहि (छिद्रप्रेक्षिन्) छिद्राणि प्रमत्ततादीनि प्रेक्षत इति छिद्रप्रेक्षी। (स्थाटी प २६०) जो छिद्र/दोषों की प्रेक्षा करता है, वह छिद्रप्रेक्षी है । ५६८. छेवट्ट (सेवार्त) अस्थिद्वयपर्यन्तस्पर्शनलक्षणां सेवामा सेवामागतमिति सेवार्तम् । (स्थाटी प ३४३) ___जो दो हड्डियों के अन्त का स्पर्श करता है, वह 'सेवा' है । जो उस रूप में आर्त है/प्रतिबद्ध है, वह सेवार्त (संहनन) ५६९. छेवट्टि (छेदवति) यत्रास्थीनि परस्परं छेदेन वर्तन्ते न कोलिकामात्रेणापि बन्धस्तत् छेदवति । (जीटी प १५) __ जहां अस्थियों में परस्पर जुड़ने के लिए छिद्र होता हैं, कीलिका नहीं, वह छेदवति (संहनन) है । ५७०. जइ (यति) जतमाणतो जती।' (दअचू पृ २३३) १. 'यति' के अन्य निरुक्तयतते मोक्षायेतिस्य यतिः । जो मोक्ष के लिए प्रयत्न करता है, वह यति है। यतं यमनमस्त्यस्य यती। (अचि पृ १४) जो यमित/संयमित है, वह यति/मुनि है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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