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________________ अस्थिकुण्ड-अहङ्कार आश्चर्यजनक सभी भौतिक विद्याओं का समावेश इसमें हो। चार युगों के आदि के चार दिनों ('मन्वादि' तथा सकता है । आसुरी (शुद्ध भौतिक) प्रवृत्ति से उत्पन्न सभी 'युगादि' तिथि) तथा माघ के दोनों पक्षों की द्वितीया को ज्ञान-विज्ञान असुरविद्या हैं। इसमें सुरविद्या अथवा दैवी दो दिन । चैत्र कृष्णपक्ष की द्वितीया को केवल एक दिन । विद्या (आध्यात्मिकता) को स्थान नहीं है। कार्तिक के दोनों पक्षों की द्वितीया को दो दिन । अगहन अस्थिकुण्ड-हड्डियों से भरा एक नरक । ब्रह्मवैवर्तपुराण महीने के दोनों पक्षों की द्वितीया को दो दिन । फाल्गुन (प्रकृतिखण्ड, अध्याय २७) में कहा गया है : महीने के दोनों पक्ष की द्वितीया को दो दिन अनध्याय पितॄणां यो विष्णुपदे पिण्डं नैव ददाति च । होता है । सभी उत्सव दिनों में और अक्षय तृतीया को स च तिष्ठत्यस्थिकुण्डे स्वलोमाब्दं महेश्वरि ॥ भी अस्वाध्याय होता है ।। [हे पार्वति, जो विष्णपद (गया) में पिता-प्रपितामहों को अस्वामिक-जिसका उत्तराधिकारी कोई न हो । स्वामिपिण्ड नहीं देता है वह व्यक्ति अपने रोमों के बराबर वर्षों रहित वस्तु । अकर्तृक । यम ने कहा है : तक अस्थिकुण्ड नामक नरक में रहता है ।] अटव्यः पर्वताः पुण्या नद्यस्तीर्थानि यानि च । अस्थिधन्वा हड्डियों से बना धनुष धारण करने वाला, सर्वाण्यस्वामिकान्याहुन हि तेषु परिग्रहः ॥ शंकर । महर्षि दधीचि की हड्डियों से तीन धनुष बने, [अटवी, पर्वत, पुण्य नदी, जो भी तीर्थ स्थान है इन उनमें से शिव के लिए निर्मित धनुष का नाम 'पिनाक' था। सबको अस्वामिक कहा गया है। इनका दान नहीं किया अस्थिमाली-हड्डियों (मुण्डों) की माला पहनने वाला। जा सकता। ] शंकर । दे० शिवशतक । 'पुण्य' इस विशेषण से अटवी नैमिषारण्य आदि; पर्वत अस्पृहा-इच्छा या लालसा न होना, वितृष्णा । एकादशी- हिमालय आदि; नदी गङ्गा आदि; तीर्थ पुरुषोत्तम आदि; तत्त्व में कथन है : क्षेत्र वाराणसी आदि आते हैं। स्वामी ( मालिक ) के यथोत्पन्नेन सन्तोषः कर्तव्योऽत्यल्पवस्तुना । अभाव में इनका परिग्रह (कब्जा) नहीं किया जा सकता। परस्याचिन्तयित्वार्थं सास्पृहा परिकीर्तिता ।। अस्वामिविक्रय-अनधिकारी के द्वारा किया गया विक्रय । [ मनुष्य को अत्यन्त स्वल्प वस्तु से संन्तोष कर लेना अस्वामिकर्तृक विक्रय । अस्वामिविक्रय नामक व्यवहार-पद चाहिए। दूसरे के धन की कामना नहीं करनी चाहिए। उसे (अभियोग, मुकदमा) का लक्षण नारद ने कहा है : (इस स्थिति को) अस्पृहा कहा गया है । ] निक्षिप्तं वा परद्रव्यं नष्टं लब्ध्वापहृत्य च । अस्वाध्याय-जिस काल में वेदाध्ययन नहीं होता । विधि विक्रीयतेऽसमक्षं यत्स ज्ञेयोऽस्वामिविक्रयः ।। पूर्वक वेद-अध्ययन न होना । अध्ययन के लिए निषिद्ध [गिरवी रखा हुआ दूसरे का धन, गिरा हुआ प्राप्त धन, दिन । यथा, ग्रहणों का दिन। धर्मसूत्रों और स्मृतियों में अपहरण किया हुआ धन; इस प्रकार का धन यदि उसके अस्वाध्याय (अनध्याय) की लम्बी सूचियाँ दी हुई है। तद स्वामी के समक्ष नहीं बेचा जाता तो उसे 'अस्वामिविक्रय' नुसार यदि सूर्य ग्रस्त दशा में अस्त हो जाय तो तीन दिन कहत है। अनध्याय, अन्यथा एक दिन । सन्ध्या को मेघ गर्जन में एक अहंता-'मैं हूँ' ऐसी चेतना, मैं पने का अभिमान । ज्ञान दिन। माघ महीने से लेकर चार महीनों तक केवल मेघ की प्रक्रिया में 'जानने वाले' की स्थिति के लिए इसका गर्जन के दिन में। भूकम्प होने पर एक दिन । उल्कापात में प्रयोग होता है। अहंकार से जीवात्मा की तन्मयता को एक दिन । महा-उल्कापात होने पर अकालिक अनध्याय । ही 'अहंता' कहा गया है। एक वेद समाप्ति के पश्चात् एक दिन । आरण्यक भाग अहं ब्रह्मास्मि-'मैं ब्रह्म हैं' यह उपनिषद् का महावाक्य की समाप्ति के पश्चात् एक दिन । पाँच वर्षों तक अध्ययन है, जो सर्वप्रथम बृहदारण्यकोपनिषद् ( १.४.१०) में के बाद पाँच दिन । चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, श्रावण शुक्ल प्रति- आया है । यह आत्मा तथा ब्रह्म के अभेद का द्योतक है । पदा तथा आग्रहायण शुक्ल प्रतिपदा को एक दिन । ये प्रति- अहङ्कार-चित्त का एक घटक योग । दर्शन के अनुसार मन, पदाएं नित्य हैं । अन्य प्रतिपदाओं में इच्छानुसार अध्ययन बुद्धि और अहङ्कार से चित्त बनता है। अहङ्कार के द्वारा किया जा सकता है। चौदह मन्वन्तर की चौदह तिथियों, अहं का ज्ञान किया जाता है । यह तीन प्रकार का कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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