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________________ असिपत्रवन-असुरविद्या युवा युवत्या साधं यन्मुग्धभर्तृवदाचरेत् । अन्तविविक्तसंगः स्यादसिधारावतं स्मृतम् ॥ [ यवती स्त्री के साथ एकान्त में किसी युवक का मन से भी असंग रहकर भोला आचरण करना असिधाराव्रत कहा गया है । -मल्लिनाथ ] असिपत्रवन-असि (तलवार) के समान जिसके तीक्ष्ण पत्ते हैं, ऐसा वन-एक नरक, जहाँ पर तीक्ष्ण पत्तों के द्वारा पापियों के शरीर का विदारण किया जाता है (मनु) । जो इस लोक में विना विपत्ति के ही अपने मार्ग से विचलित हो जाता है तथा पाखण्डी है उसे यमदूत असिपत्रवन में प्रविष्ट करके कोड़ों से मारते हैं। वह जीव इधर-उधर दौड़ता हआ दोनों ओर की धारों से तालवन के खङ्गसदृश पत्तों से सब अंगों में छिद जाने के कारण "हा मैं मारा गया" इस प्रकार शब्द करता हुआ मूच्छित होकर पग पग पर गिरता है और अपने धर्म से पतित होकर पाखंड करने का फल भोगता है । दे० भागवत पुराण । मार्कण्डेय पुराण में भी इसका वर्णन पाया जाता है : असिपत्रवनं नाम नरकं शृणु चापरम् । योजनानां सहस्रं वै ज्वलदग्न्यास्तृतावनि ॥ तप्तसूर्यकरैश्चण्डैः कल्पकालाग्नि दारुणः । प्रतपन्ति सदा तत्र प्राणिनो नरकौकसः ॥ तन्मध्ये च वनं शीतं स्निग्धपत्रं विभाव्यते । पत्राणि यत्र खङ्गानि फलानि द्विजसत्तम । [ हे ब्राह्मण ! दूसरा असिपत्र नाम का नरक सुनो । वहाँ एक हजार योजन तक विस्तृत पृथ्वी पर आग जलती है, ऊपर भयङ्कर सूर्य की किरणों से तथा नीचे प्रलयकालीन अग्नि से प्राणी तपाया जाता है, उसके मध्य भाग में चिकने पत्तों वाला शीतवन है, जिसके पत्ते एवं फल खङ्ग के समान हैं। ] असुनीति-असु = प्राण या जीवन की नीति = मार्गदर्शक उक्ति । ऋग्वेद (१०.५९.५६) में असुनीति को मनुष्य की मृत्यु पर आत्मा की पथप्रदर्शक माना गया है । असुनीति की स्तुतियों से स्पष्टतया प्रकट होता है कि वे या तो इस लोक में शारीरिक स्वास्थ्य कामनार्थ अथवा स्वर्ग में शरीर एवं इसके दूसरे सुखों की प्राप्ति के लिए की गयी हैं। असुर-असु = प्राण, र = वाला (प्राणवान् अथवा शक्ति- मान)। बाद में धीरे-धीरे यह भौतिक शक्ति का प्रतीक हो गया। ऋग्वेद में 'असुर' वरुण तथा दूसरे देवों के विशेषण रूप में व्यवहृत हुआ है, जिससे उनके रहस्यमय गुणों का पता लगता है। किन्तु परवर्ती युग में असुर का प्रयोग देवों (सुरों) के शत्रु रूप में प्रसिद्ध हो गया। असुर देवों के बड़े भ्राता है एवं दोनों प्रजापति के पुत्र हैं। असुरों ने लगातार देवों के साथ युद्ध किया और प्रायः विजयी होते रहे । उनमें से कुछ ने तो सारे विश्व पर अपना साम्राज्य स्थापित किया, जब तक कि उनका संहार इन्द्र, विष्णु, शिव आदि देवों ने नहीं किया। देवों के शत्रु होने के कारण उन्हें दुष्ट दैत्य कहा गया है, किन्तु सामान्य रूप से वे दुष्ट नहीं थे। उनके गुरु भगुप्त्र शुक्र थे जो देवगुरु बृहस्पति के तुल्य ही ज्ञानी और राजनयिक थे । ___ महाभारत एवं प्रचलित दूसरी कथाओं के वर्णन में असुरों के गुणों पर प्रकाश डाला गया है। साधारण विश्वास में वे मानव से श्रेष्ठ गुणों वाले विद्याधरों की कोटि में आते हैं । कथासरित्सागर की आठवीं तरङ्ग में एक प्रेमपूर्ण कथा में किसी असुर का वर्णन नायक के साथ हुआ है । संस्कृत के धार्मिक ग्रन्थों में असुर, दैत्य एवं दानव में कोई अन्तर नहीं दिखाया गया है, किन्तु प्रारम्भिक अवस्था में 'दैत्य एवं दानब' असुर जाति के दो विभाग समझे गये थे । दैत्य 'दिति' के पुत्र एवं दानव ‘दनु' के पुत्र थे। - देवताओं के प्रतिद्वन्द्वी रूप में 'असुर' का अर्थ होगाजो सुर नहीं है (विरोध में नञ्तत्पुरुष); अथवा जिसके पास सुरा नहीं है; जो प्रकाशित करता है (सूर्य, उरन् प्रत्यय) । सुरविरोधी। उनके पर्याय है : (१) दैत्य, (२) दैतेय, (३) दनुज, (४) इन्द्रारि, (५) दानव, (६) शुक्रशिष्य, (७) दितिसुत, (८) पूर्वदेव, (९) सुरद्विट्, (१०) देवरिपु, (११) देवारि । रामायण में असुर की उत्पत्ति और प्रकार से बतायी गयी है : सुराप्रतिग्रहाद् देवाः सुरा इत्यभिविश्रुताः । अप्रतिग्रहणात्तस्या दैतेयाश्चासुराः स्मृताः ॥ [सुरा = मादक तत्त्व का उपयोग करने के कारण देवता लोग सुर कहलाये, किन्तु ऐसा न करने से दैतेय लोग असुर कहलाये ।] असुरविद्या-शासायन एवं आश्वलायन श्रौत-सूत्रों में असुरविद्या को शतपथ ब्राह्मण में प्रयुक्त 'माया' के अर्थ में लिया गया है। इसका प्रचलित अर्थ 'जादूगरी' है। परन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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