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________________ ५६८ लिङ्गवत-लिङ्गायत शब्द मिलता है, किन्तु लिङ्ग शिश्न नहीं है; यह ज्योति व्यापक रूप से प्रचलित थी और आकार तथा विधि के अथवा प्रकाश का प्रतीक है।) संप्रति सभी शैवसम्प्रदाय थोड़े-बहुत भेद के साथ सारे संसार के मूर्तिपूजक लिङ्गलिङ्ग की पूजा करते हैं। पूजन करते थे। मिस्र में, यूनान में, बाबुल में, असुर देश में, लिङ्गायत सम्प्रदाय में लिङ्ग का बहुत अधिक महत्त्व इटली में, फ्रांस तथा अमेरिका में, अफ्रीका में, तथा पॉलिहै। अष्टवर्ग, जो लिङ्गायतों का एक संस्कार है, बच्चे के नेशिया द्वीपों में लिङ्गपूजा होती थी। मक्का की मस्जिद जन्म के बाद पापों से उसकी रक्षा के लिए किया जाता में आज भी एक पत्थर अथवा लिङ्ग है, जिसे मुसलमान है। लिङ्ग भी अष्टवर्गों में से एक है । प्रत्येक लिङ्गायत यात्री चमते हैं। वह स्वयं मुहम्मद साहब के हाथों वहाँ गले में लिङ्ग धारण करता है । रखा गया है। हिन्दू-भारत में तो शिवपूजा और लिङ्गलिङ्गवत-ये सब व्रत कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी से प्रारम्भ पूजा अनादि काल से परम्परागत रही है। होते हैं। इनमें शिवजी का पूजन होता है। इस अवसर किन्तु लिङ्गपूजा शिश्नपूजा नहीं है, जैसा कि बहुत से पर नक्त विधि से आहार करना चाहिए । चावल के आटे लोग समझते हैं। 'शिश्नोदर परायण' को हिन्दू धर्म में से एक अरनि जितना बड़ा शिवलिङ्ग बनाया जाय, इस घृणित समझा जाता है । ऋग्वेद में 'शिश्नदेव' इसी घणित लिङ्ग पर एक प्रस्थ तिल चढाना चाहिए। मार्गशीर्ष अर्थ में प्रयुक्त है । लिङ्ग वास्तव में प्रतीक मात्र है। यह शक्ल चतुर्दशी को शिवलिंग पर केसर का प्रलेप करना निश्चल, स्थिर तथा दृढ़ ज्ञानस्कन्ध का प्रतीक है । भारत चाहिए। इस विधि से प्रति मास वर्ष भर भिन्न-भिन्न में अनेक लिङ्गों की स्थापना हुई है, जिनमें द्वादश ज्योतिप्रकार के प्रलेप, धूप तथा नैवेद्यादि का प्रयोग करना लिङ्ग विशेष प्रसिद्ध हैं। चाहिए। इससे गम्भीर से गम्भीर पातकी पविा होकर लिङ्गायत-वीर शैवों का अन्य नाम लिंगायत भी है। इस रुद्रलोक प्राप्त कर लेता है । लिंग का निर्माण पवित्र भस्म सम्प्रदाय की उत्पत्ति कर्नाटक के समुद्रतट पर तथा महासे, सुखे गौ के गोबर से, रेणु से या स्फटिक पाषाण से राष्ट्र देश में १२वीं शताब्दी के मध्य हई । यद्यपि वीर किया जा सकता है, किन्तु सर्वोत्तम लिङ्ग तो नर्मदा के शैव अथवा वीर माहेश्वर अपने सम्प्रदाय को अति प्राचीन उद्गम वाले पर्वत की रज से ही निर्मित हो सकता है। मानते हैं। कर्नाटक में सैकड़ों वर्षों तक या तो शव थे लिङ्गधारी-शैवों में भगवान शिव की अनन्य और प्रगाढ़ या दिगम्बर जैन । इस नये सम्प्रदाय की स्थापना शैव भक्ति करने वाले वीर माहेश्वर या वीर शैव हैं, जिन्हें धर्म की निश्चित सुव्यवस्था के लिए तथा जैनियों को लिङ्गायत भी कहते हैं। पाशुपतों या शैवों में लिङ्गी वा अपने सम्प्रदाय में लेने के लिए हुई। सम्प्रदाय की दो लिङ्गधारी तथा अलिङ्गी वा साधारण लिडार्चन करने मुख्य विशेषताएँ हैं-(१) मठों की प्रधानता तथा (२) वाले, ये दो प्रकार हैं । लिङ्गधारी ही लिङ्गायत कहलाते धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र में प्रत्येक लिंगायत का हैं जो मांस-मत्स्यादि का परित्याग करते हैं। समानाधिकार। लिङ्गपुराण-अठारह महापुराण में से ग्यारहवाँ पुराण । वीर शवों की साम्प्रदायिक व्यवस्था महत्त्वपूर्ण है। लिङ्ग तथा कूर्म पुराणों शैव वर्ग के हैं जो वैष्णव वर्गीय इनके पाँच प्रारम्भिक मठ थे जिनके महन्त पाँच अग्नि तथा गरुड पुराण जैसी विशेषताएँ रखते हैं। संन्यासी थे : इनमें आगमों और तन्त्रों की शिक्षाओं का भी समावेश है मठ प्रदेश प्रथम महन्त और इन ग्रन्थों का प्रसंग भी यथास्थान आया है। दोनों १. केदारनाथ हिमालय प्रदेश एकोराम में कुछ परिवर्तन तथा परिवर्धन के साथ शिव के २८ २. श्रीशैल तैलंग प्रदेश पण्डिताराध्य अवतारों तथा उनके शिष्यों का वर्णन (वायु से लिया ३. बलेहल्ली पश्चिमी मैसूर रेवण गया) उपस्थित है । लिङ्गपुराण में ओंकार के रहस्यमय ४. उज्जयिनी बेलारी सीमा मरुल अर्थ पर विशेष विचार किया गया है। ५. वाराणसी उत्तर प्रदेश विश्वाराध्य लिङ्गपूजा--पुरातत्त्व के विद्वानों का कहना है कि लिङ्ग- प्रत्येक लिंगायत ग्राम में एक मठ होता है जो किसी न पूजा किसी समय, विशेषतः ईसा के पूर्व सारे संसार में किसी आदि मठ से सम्बन्धित होता है। जङ्गम एक जाति है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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