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________________ लिङ्गार्चनव्रत-लीलाचरित जिसके सभी लिङ्गायत गुरु सदस्य होते हैं । प्रत्येक लिङ्गायात को किसी न किसी मठ से सम्बन्धित होना चाहिए तथा उसका एक गुरु होना चाहिए। लिङ्गायत शिव को ही सर्वेश्वर मानते हैं तथा एकमात्र शिव की पूजा करते हैं । वे शिव की पूजा दो प्रकारों से करते हैं; अपने गुरु जङ्गम की पूजा तथा गले में लटकने वाले छोटे लिङ्ग की पूजा । जब बच्चा पैदा होता है तो पिता अपने गुरु को बुलाता है, वह बच्चे की रक्षा के लिए अष्टवर्ग संस्कार करता है । इसके आठ विभाग हैं— गुरु, लिङ्ग, विभूति, रुद्राक्ष, मन्त्र, जङ्गम, तीर्थ और प्रसाद इस संस्कार से बालक लिङ्गायत बन जाता है। प्रत्येक लिङ्गायत को एक गुरु स्वीकार करना होता है । इस अवसर पर एक संस्कार होता है, इसमें पाँच पात्रों का प्रयोग होता है जो पाँचों आदि विहारों के आदिमहन्तों का प्रतिनिधित्व करते हैं । चार पात्र वेदी के एकएक कोने पर तथा मध्य में वह रखा जाता जिससे गुरु का सम्बन्ध होता है । दीक्षा लेने वाला जिस मठ से अपना सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है उसके महन्त प्रतिनिधि पात्र को केन्द्र में रखता है। है के प्रत्येक लिङ्गायत दिन में दो बार भोजन के पूर्व पूजा करता है। वह अपने गले से लिङ्ग लेकर हथेली पर रखता है तथा बताये गये ढंग से पूजा व ध्यान में लीन हो जाता है। जब गुरु चेले के घर आते हैं तब पादोदक संस्कार होता है, जिसमें उस परिवार के सभी लोग बन्धु बान्धव समेत सम्मिलित होते हैं और गृहस्वामी गुरु के चरणों की पूजा षोडशोपचारपूर्वक करता है । जनम के दो अर्थ है एक तो जाति का सदस्य और दूसरा जो जङ्गमाभ्यास करता है। केवल दूसरा ही पूजनीय होता है । बहुत से जङ्गम विवाह करते तथा जीविकोपा र्जन करते हैं, किन्तु अभ्यासी जङ्गम ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं । उनकी शिक्षा किसी मठ में होती है तथा वे दीक्षित होते हैं । ये दो प्रकार के होते हैं। प्रथम गुरुस्थल जनम वे है जो पारिवारिक संस्कारों के कराने की शिक्षा लेकर गुरु का कार्य करते हैं । पाँचों मठों का नाम भी गुरुस्थल है। दूसरा वर्ग है विरक्त जङ्गमों का, इनके लिए विशेष मठ होते हैं जहां इन्हें दार्शनिक शिक्षा दा जाती ७२ Jain Education International ५६९ है । इन मठों को षट्स्थल मठ कहते हैं क्योंकि यहाँ शिव के साथ एकत्व प्राप्त करने के छः स्थलों की शिक्षा दी जाती है । लिङ्गायतों में दो वर्ग हैं-- एक पूर्ण लिङ्गायत, दूसरे अर्ध लिङ्गायत । अर्ध लिंगायतों की पूजा अपूर्ण तथा जातिभेद बहुत ही कड़ा है। पूर्ण लिंगायत अन्तर्जातीय विवाह नहीं करते किन्तु भोजन सभी के साथ कर लेते हैं । पूर्ण लिंगायत शव को जलाते हैं । ये शाकाहारी होते है बालविवाह इनमें वर्जित है किन्तु विधवाविवाह होता है । वीरशैवों को यह शिक्षा दी जाती है कि वे इसी जन्म में सिखाये हुए ध्यान की छः अवस्थाओं से होकर मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं उनके अभ्यास में भक्ति का बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है । । लिङ्गायत साहित्य अधिकांश कन्नड तथा संस्कृत में है । किन्तु कुछ महत्वपूर्ण प्रन्थ तेलुगु भाषा में भी हैं। एक अति प्राचीन ग्रन्थ है 'पंडिताराध्य का जीवन' । इसे सोमनाथ ने संस्कृत तथा तेलुगु मिश्रित भाषा में लिखा है । अन्य ग्रन्थ बसवपुराण, श्रीकरभाष्य ( वेदान्तसूत्र का भाष्य ), सूक्ष्म आगम पूर्ण लिङ्गायत हैं। लिङ्गायतों में प्रचलित महत्त्वपूर्ण कन्नड भाषा की शिक्षाएँ 'वचन' कह लाती हैं। कुछ कन्नडही पुराण भी इस सम्प्रदाय के हैं जिनमें राघवारचित 'सिद्धराम' बहुत प्रसिद्ध है । लिङ्गानव्रत शनिवारयुक्त कार्तिक शुक्ल त्रयोदशी को इस - व्रत का अनुष्ठान होता है। उस दिन शिवजी के एक सौ नामों का जप करना चाहिए। प्रदोषकाल में पञ्चामृत से स्नान कराकर लिङ्ग रूप में शिवजी का पूजन करना चाहिए । स्कन्दपुराण (१.१७.५९-९१ ) इस व्रत का वर्णन करता है। श्लोकसंख्या ७५-८९ में शिवजी के १०० नाम गिनाये गये हैं । लिङ्गार्चनी शाखा - यों तो सभी शैव लिङ्गार्चन करते हैं, किन्तु प्रगाढ़ शिवभक्तों का सम्प्रदाय वीर माहेश्वर या वीर व अपने अङ्ग पर निरन्तर लिङ्ग धारण करने के कारण लिङ्गायत कहलाता है। प्रति दिन दो बार लिङ्गार्चन करने के कारण इस शाखा को लिङ्गार्चनी शासा भी कहा गया है । लीलाचरित -मानभाउ पन्थ या दत्त सम्प्रदाय का एक प्राचीन ग्रन्थ लीलाचरित है । इनके सभी ग्रन्थ मराठी में For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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