SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 529
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ माध्वसम्प्रदाय मानवसृष्टि पृथक् पदार्थ पदार्थ हैं । रामानुज स्वामी जीव और ब्रह्म का स्वगत भेद स्वीकार करते हैं, परन्तु सजातीय और विजातीय भेद नहीं मानते। ब्रह्म स्वतंत्र है, जीव अस्वतंत्र है ब्रह्म और जीव में सेव्य-सेवक भाव है। सेवक कभी सेव्य वस्तु से अभिन्न नहीं हो सकता। भेदाभेदवाद भी विशिष्टाद्वैतवाद के समान ही है । अतएव माध्वमत से ये सब भिन्न हैं । मध्वाचार्य से पहले इस मत का कोई उल्लेख नहीं मिलता । अवश्य ही उन्होंने पुराणादि का अनुसरण करके ही इस मत को स्थापित किया। मालूम होता है, मध्याचार्य का स्वतंत्रास्यतंत्रवाद वैष्णवों के भक्तिवाद का फल है। जिन दिनों शाङ्करमत और भक्तिवाद का देश में संघर्ष चल रहा था, उन्हीं दिनों माध्वमत का उद्भव हुआ । घात-प्रतिघात के फलस्वरूप माध्वमत शाङ्करमत का विरोधी बन गया। इस मत में शाङ्करमत का बहुत तीव्र भाषा में खण्डन किया गया है। यह मत भी वैष्णवों के चार प्रमुख मतों में एक है । मध्वाचार्य के मत से ब्रह्म सगुण और सविशेष है। जीव अणु परिमाण हैं, वह भगवान् का दास हैं । वेद नित्य और अपौरुषेय हैं । पाञ्चरात्रशास्त्र का आश्रय जीव को लेना चाहिए प्रपञ्चसत्य है यहाँ तक मध्य का रामानुज से ऐकमत्य है । किन्तु पदार्थनिर्णय में दोनों में भेद है। मध्य के अनुसार पदार्थ दो प्रकार का है— स्वतंत्र और अस्वतन्त्र अशेष सद्गुण युक्त भगवान् विष्णु स्वतंत्र तत्त्व हैं । जीव और जड़ जगत् अस्वतंत्र तत्त्व हैं। मध्वपूर्णरूप से द्वैतवादी है। वे कहते हैं, जीव भगवान् का दास है, दास यदि स्वामी से साम्य का बोध करे तो स्वामी उसे दण्ड देते हैं। 'अहं ब्रह्मास्मि' के बोध पर भगवान् जीव को नीचे गिरा देते हैं । परमसेव्य भगवान् की सेवा के अतिरिक्त जीव को और कुछ नहीं करना चाहिए । स्वतन्त्र तत्त्व भगवान् की प्रसन्नता प्राप्त करना ही एक मात्र पुरुषार्थ है वह परम पुरुषार्थ भग वान् के दिव्य गुणों के स्मरण-चिन्तन के बिना नहीं प्राप्त हो सकता । 'तत्त्वमसि' आदि महावाक्यों को सुनने से वैसा स्मरण, चिन्तन नहीं हो सकता। अङ्कन, भजन और नामकरण के द्वारा ही वह सुलभ होता है। निर्वाणमुक्ति तो कहने भर की वस्तु है । सारुप्य, सालोक्य आदि Jain Education International मुक्ति ही परमार्थ है । इन्हीं बातों को हृदय में रखकर मध्वाचार्य ने स्वतन्त्र स्वतन्त्रवाद की स्थापना की । माध्व सम्प्रदाय दे० 'मध्व सम्प्रदाय' । मानव (१) मनु के वंशज ( ऐ० वा० ५।१४,२ ) मानव कहलाये । नाभानेदिष्ट और शयत के लिए यह पितृबोधक शब्द है। पुराणों में वर्णित सूर्य अथवा इक्ष्वाकु का वंश मानव वंश था । ५१५ ( २ ) मनु के नाम से प्रचलित धर्मशास्त्र भी 'मानव धर्मशास्त्र' कहलाता है। मानव उपपुराण- उन्तीस प्रसिद्ध उपपुराणों में से एक है। मानव गृह्यसूत्र - कृष्ण यजुर्वेदीय एक गृह्यसूत्र मानव-गृह्यसूत्र है। यह मनु द्वारा रचित माना जाता है। इस पर अष्टावक्र की वृत्ति है । मानवधर्मशास्त्र - दे० 'मनुस्मृति' । - | मानवश्रौतसूत्र कृष्ण यजुर्वेदीय एक श्रौतसूत्र यह मनुरचित माना जाता है एवं विशेष प्रसिद्ध है । इसमें पहले अध्याय में प्राक् सोम, दूसरे में अग्निष्टोम तीसरे में प्रायश्चित्त, चौथे में प्रवयं पाँचवें में दृष्टि, छठे में चयन, सातवें में वाजपेय, आठवें में अनुग्रह, नवें में राजसूय, दसवें में शुल्व सूत्र और ग्यारहवें अध्याय में परिशिष्ट , 3 | अग्निस्वामी बालकृष्ण मिश्र और और कुमारिल भट्ट इसके भाष्यकार हैं। मानवसृष्टिमानवसृष्टि इस सम्बन्ध से पद्म राण में उल्लेख है कि ७ For Private & Personal Use Only 'प्रजासृष्टि' के प्रारम्भ में प्रजापति ने ब्राह्मण की सृष्टि की ब्राह्मण आत्मतेज से अग्नि और सूर्य की तरह । उद्दीप्त हो उठे । इसके बाद सत्य, धर्म, तप, ब्रह्मचर्य, आचार और शौच आदि ब्रह्मा से उत्पन्न हुए । इन सब के पश्चात् देव, दानव, गन्धर्व, दैत्य, असुर, उरग, यक्ष, रक्ष, राक्षस, नाग, पिशाच और मनुष्य की सृष्टि हुई। हिन्दू धर्मावलम्बियों की धारणा है कि मानवसृष्टि आर्यावर्त में ही हुई और यहीं से सारे संसार में फैली। बाह्मणों के अदर्शन से ( अर्थात् वैदिक संस्कार कराने वालों के न मिलने से अथवा लोप होने से ) यह सृष्टि भ्रष्ट हो गई। अतः म्लेच्छ हो गयी ये ही म्लेच्छ जातियाँ हजारों वर्ष तक जङ्गली रहीं। फिर धीरे धीरे स्वाभाविक रीति से इनका विकास हुआ। भारतेतर देशों की, विशेयतः पश्चिम की मानवजाति की यही कहानी है। इसी कारण वे अपने को आज भी आर्य कहते हैं। www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy