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________________ ४८२ भेडाघाट-भैरवतन्त्र पक्षीय द्वादशी को)। व्रत के अन्त में गौ का दान भेदाभेद सिद्धान्त का प्रतिपादन आगे चलकर भास्कराचार्य विहित है। ने किया। वैष्णवों में भेदाभेदसम्प्रदाय के प्रसिद्ध आचार्य भेड़ाघाट-मध्य प्रदेश में जबलपुर से पश्चिम १२ मील निम्बार्काचार्य हुए हैं । दूर नर्मदाजी का भेड़ाघाट है। कहते हैं, यह महर्षि भग भेदोज्जीवन-आचार्य व्यासराजकृत भेदोज्जीवन नामक ग्रन्थ की तपोभूमि है। तपःस्थान विद्यमान है । नर्मदा के उनके द्वारा लिखे तीन ग्रन्थों में से एक है। इसमें माध्वउत्तर तट पर बानगङ्गा नदी का संगम है। पास में मत का प्रतिपादन किया गया है । श्रीकृष्णमन्दिर और एक छोटी पहाड़ी पर गौरीशङ्कर का भैमी एकादशी-माघ शुक्ल एकादशी को जब मृगशिरा मन्दिर है । इस मन्दिर के चारों ओर वृत्ताकार में चौसठ- नक्षत्र हो तब यह व्रत किया जाता है। उस दिन व्रती को योगिनीमन्दिर विद्यमान है। इन दोनों मन्दिरों का उपवास रखकर द्वादशी के दिन षट्तिली' होना चाहिए । निर्माण त्रिपुरी के कलचुरि राजाओं के समय में हुआ था। षट्तिली का तात्पर्य है तिलमिश्रित जल से स्नान, तिल भेड़ाघाट से थोड़ी दूर पर 'धुआँधार' प्रपात है। यहाँ को पीसकर उससे शरीर मर्दन, तिलों से ही हवन तथा नर्मदा का जल ४० फुट ऊपर से गिरता है। प्रपात के तिल मिश्रित जल का पान, तिलों का दान और तिलों आगे नर्मदा का प्रवाह संगमरमर की चट्टानों के मध्य से का ही भोजन । यदि कोई व्यक्ति इस एकादशी को, जो बहता है । ये चट्टानें दर्शनीय और विश्वविख्यात हैं। 'भीमतिथि' कहलाती है, उपवास रखता है तो वह विष्णुलोक भेद-एक असुर का नाम । अथर्ववेद (१२.४ ) में प्राप्त करता है। भेद का उल्लेख एक बुरे अन्त को प्राप्त करने वाले व्यक्ति भैरव-शिव का नाम, जिसका अर्थ भयावना होता है । के अर्थ में हुआ है। क्योंकि उसने इन्द्र को एक गाय प्रारम्भिक अवस्था में यह शब्द त्रिदेवों में अन्तिम देवता ( वशा ) देने से इन्कार कर दिया था। उसका अधार्मिक शिव का वाचक था । यद्यपि यह शब्द प्राचीन है चरित्र उसे अनार्य दल का नेता मानने को बाध्य करता है। किन्तु शिव की भैरव के स्वरूप में पूजा नयी है । शिव के भेददर्पण-तृतीय श्रीनिवास पण्डित द्वारा रचित ग्रन्थ, जो भैरव रूप के संप्रति आठ अथवा बारह प्रकार हैं। उनमें विशिष्टाद्वैत का समर्थन तथा अन्य मतों का खण्डन विशेष प्रचलित हैं कालभैरव, जिनका वाहन श्वान (कुत्ता) करता है। है । इनकी शक्ति का नाम भैरवी है। भैरव के ग्रामीण भेदधिक्कारसक्रिया-एक अद्वैतवेदान्तीय टीकाग्रन्थ, जो रूप भैरों है। ये मुख्यतः कृषकों के देवता हैं । भैरों नारायणाश्रम स्वामी ने अपने गुरु नृसिंहाश्रम के 'भेद- की पूजा वाराणसी तथा बम्बई में और उत्तर तथा मध्य धिक्कार' ( जो भेदवाद का खण्डन है ) पर लिखा है। भारत के किसानों में प्रचलित है । मध्य भारत में कमर में स्वयं इस टीका की भी टीका उन्होंने लिखी और उसका साँप लपेटे एक मृदङ्गवादक के रूप में या केवल एक नाम रखा 'भेदधिक्कारसत्क्रियोज्ज्वला' । लाल पत्थर के रूप में इनकी पूजा दूधदान से होती है । भेदधिक्कारसत्क्रियोज्ज्वला-दे० 'भेदधिक्कारसत्क्रिया। शहरों में मादक पेयों द्वारा इनकी पूजा होती है। गांव के भेदाभेद-बादरायण के पूर्व ही जीवात्मा तथा ब्रह्म के कृषक तथा शहरों में जोगी (नाथ) इनके भक्त होते हैं। सम्बन्ध के विषय में तीन सिद्धान्त वर्तमान थे । आश्मरथ्य भैरवजयन्ती-कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी के अनुसार आत्मा न तो ब्रह्म से बिल्कुल भिन्न है और कालाष्टमी' के नाम से प्रसिद्ध है। उस दिन उपवास न बिल्कुल अभिन्न । यह पहला सिद्धान्त था जिसे 'भेदा- रखकर जागरण करना चाहिए । रात्रि के चार प्रहर तक भेद' कहते हैं। दूसरा है औडुलोमि का 'द्वैतसिद्धान्त', भैरव के पूजन, जागरण तथा शिवजी के विषय में कथाएँ जिसके अनुसार आत्मा ब्रह्म से बिल्कुल भिन्न है और सुननी चाहिए। इससे व्रती पापमुक्त होकर सुन्दर शिवमोक्ष के समय ब्रह्म में मिलकर एकाकार हो जाता है । भक्त बन जाता है। काशीवासियों को यह व्रत अवश्य इसे सत्यभेद भी कहते हैं। तीसरे सैद्धान्तिक हैं काशकृत्स्न। करना चाहिए। इनके अनुसार आत्मा ब्रह्म से किंचित् भी भिन्न नहीं है। भैरवतन्त्र-'आगमतत्त्वविलास' में उद्धृत ६४ तन्त्रों की इसे 'अद्वैतसिद्धान्त' कहते हैं। आश्मरथ्य द्वारा स्थापित सूची में भैरवतन्त्र भी एक है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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