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________________ भूतानि भृगुव्रत 1 भूतानि - 'भूत' का बहुवचन समस्त जीवजगत् के लिए प्रायः इसका प्रयोग होता है। चतुर्व्यूहान्तर्गत विष्णु के पाँच रूपों के भिन्न-भिन्न कार्य हैं । अन्तिम रूप ब्रह्मा की उत्पत्ति चतुर्थ व्यूह अनिरुद्ध से होती है, जो सम्पूर्ण दृष्ट जगत् (भूतानि) के स्रष्टा है। भूति-शक्ति की एक विशेष अवस्था । प्रारम्भिक सृष्टि की प्रथमावस्था में शक्ति दो रूपों में जागती है (जैसे कि इसके पूर्व नींद में रही हो ) १ क्रिया ( कार्य ) तथा भूति ( होना ) । भूतेश्वर - भूतों ( जीवों ) के ईश्वर - शिव बोलचाल में भूत का अन्य अर्थ 'प्रेत' है प्रेत उन आत्माओं में है जो किसी घोर कर्मवश मृत्यु की प्राप्त हो भटकते रहते हैं । प्रेत श्मशान में निवास करते हैं। इस प्रकार शिव उन सभी भूतों के स्वामी हैं जो श्मशानों के निवासी हैं । जिस समय शिव ताण्डव नृत्य करते हैं, उस समय भूत प्रेत उनके साथ होते हैं और वे विद्रोही दैत्यों को पददलित करते रहते हैं। ताण्डव में शिव की देवी ( शक्ति ) उनका अनुकरण करती हैं । भूदेवी - पृथ्वी माता को हो मानवीकरण द्वारा देवी का रूप दिया गया है । उनके दो स्वरूप हैं : ( १ ) दयालु और (२) ध्वंसक ये दयालु रूप में सभी की माता तथा अन्नदा कहलाती हैं। बंगाल में उन्हें भूदेवी, धरती, मायी, वसुन्धरा, अम्बवाची, वसुमती एवं ठकुरानी आदि नामों से पुकारते हैं । धार्मिक हिन्दू नित्य प्रातः नींद से उठकर भूदेवी की स्तुति करके ही अपना पैर नीचे रखते हैं । भगवान् विष्णु की योगमाया के दो रूप लीलादेवी और भूदेवी उनके अगल-बगल विराजमान होते हैं। आगमसंहिताओं के अनुसार इन तीन मूर्तियों के रूप में विष्णुपूजा की जाती है । - भूभाजनतयह संवत्सरत है। यदि कोई व्यक्ति पितरों को नैवेद्य अर्पण करने के बाद एक वर्ष तक खाली भूमि पर ( न तो थाली में और न किसी केला इत्यादि के पसे पर ) भोजन करता है तो यह समस्त पृथ्वी का सम्राट् बनता है । Jain Education International भूमिव्रत शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को सूर्यपूजन करके पवित्र मृतिका, बालुका या नर्मदा के पद्म से शिवमूर्ति ( लिङ्ग ) का निर्माण करना चाहिए। उस समयउ पवास भी करना चाहिए। पूजन में भक्त को केसर, पुष्प, घृतमिश्रित ६१ ४८१ पायस (खीर) तथा कुछ उपहारादि का समर्पण करना चाहिए । इस व्रत से व्रती राजा के समान प्रभुत्व प्राप्त करता है । राजा को ही इस व्रत का आचरण करना चाहिए । भृगु वैदिक ग्रन्थों में बहुचर्चित एक प्राचीन ऋषि वे - । वरुण के पुत्र ( शत० ० ११.६.१.१० आ० ९.१ ) कहलाते हैं तथा पितृबोधक 'वारुणि' उपाधि धारण करते हैं ( ऐ० ब्रा० ३.३४ ) । बहुवचन ( भृगवः ) में भृगुओं को अग्नि का उपासक बताया गया है । स्पष्टतः यह प्राचीन काल के पुरोहितों का एक ऐसा समुदाय था जो सभी वस्तुओं को भृगु नाम से अभिहित करते थे । कुछ सन्दर्भों में इन्हें एक ऐतिहासिक परिवार बताया गया है ( ऋ० वे० ७.१८, ६, ८.३.९,६, १८ ) । यह स्पष्ट नहीं है कि 'दाशराज्ञ युद्ध' में भृगु पुरोहित थे या योद्धा । परवर्ती साहित्य में भृगु वास्तविक परिवार है जिसके अनेक विभाजन हुए हैं। भृगु लोग कई प्रकार के याज्ञिक अवसरों पर पुरोहित हुए हैं, जैसे अग्निस्थापन तथा दशमेय ऋतु के अवसर पर कई स्थलों पर वे आंगिरसों से सम्बन्धित है। भूलन बावा- मध्य प्रदेश में कुछ विचित्र देवदेवियों की मान्यता है । भूलन बाबा उनमें से एक ग्रामदेवता हैं । विश्वास किया जाता है कि इसके प्रभाव से लोग अपनी चीजें भूलने नहीं पाते हैं। इनकी मनौती न करने पर भूल बहुत होती है और जहाँ-तहाँ चीजें छूट जाती हैं । खोज करने पर वस्तु प्राप्ति होते ही इस देवता की पूजा होती है । भूसुरानन्द छान्दोग्य तथा केनोपनिषद पर अनेक टीकाएँ हैं । उनमें से भूसुरानन्द की भी एक टीका है । - भृगु ( स्मृतिकार ) – प्रसिद्ध धर्मशास्त्रीय ग्रंथ 'मनुस्मृति' की रचना मनु महाराज के आदेश से महर्षि भृगु ने की । भृगुवल्ली तैत्तिरीयोपनिषद् के तीन भाग हैं शिक्षावल्ली, - आनन्दवल्ली तथा भृगुवल्ली। दूसरे और तीसरे भाग को मिलाकर 'वारुणी' उपनिषद् भी कहते है । भृगुव्रत - यह व्रत मार्गशीर्ष कृष्ण द्वादशी को प्रारम्भ होता है । यह तिथिव्रत है । भृगुपदवाचक बारह देवों का इसमें पूजन होता है, जिनको यज्ञ का समर्पण किया जाता है । एक वर्षपर्यन्त यह अनुष्ठान चलता है ( प्रत्येक कृष्ण For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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