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________________ भागवतभावार्थदीपिका-भाट्टदिनकर ४७३ 'समाधिभाषा' कहा है। इस पर उनकी 'सुबोधिनी' पाण्डुलिपि वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय के पुस्तकालय टीका प्रसिद्ध है। भागवत का चैतन्य सम्प्रदाय और में उपलब्ध है । रचनाकाल पन्द्रहवीं शताब्दी है । वल्लभ सम्प्रदाय दोनों पर गम्भीर प्रभाव पड़ा। दोनों भागवतव्याख्या-विष्णुस्वामी सम्प्रदाय का एक सम्मानित सम्प्रदायों ने भागवत के आध्यात्मिक तत्त्वों का विस्तृत आधारग्रन्थ। इस सम्प्रदाय के संस्थापक विष्णुस्वामी दक्षिण निरूपण किया है । ऐसे ग्रन्थों में आनन्दतीर्थ कृत 'भाग- भारत के निवासी थे। उन्होंने गीता, वेदान्तसूत्र तथा वततात्पर्यनिर्णय' और जीव गोस्वामी के 'षट् सन्दर्भ' बहुत भागवत पुराण पर व्याख्याएँ रची थीं, जो अब प्राप्त नहीं प्रसिद्ध हैं । भागवत के अनुसार एक ही अद्वैत तत्त्व जगत् हैं। इनके भागवत सम्बन्धी ग्रन्थ का उल्लेख श्रीधर स्वामी के व्यापार-सृष्टि, स्थिति और लय के लिए विभिन्न ने अपनी टीका (१.७ ) में किया है। इसका रचनाअवतार धारण करता है । भक्ति ही मोक्ष का मुख्य साधन काल १३वीं शताब्दी माना जा सकता है। है । इसके बिना ज्ञान और कर्म व्यर्थ हैं। भागवतामृत-महाप्रभु चैतन्य के शिष्य सनातन गोस्वामी भागवतभावार्थदीपिका-पन्द्रहवीं शताब्दी में उत्पन्न श्रीधर द्वारा रचित एक ग्रन्थ । इसमें चैतन्य सम्प्रदाय के स्वामी द्वारा विरचित भागवत पुराण की सुप्रसिद्ध टीका। आशयानुसार श्री कृष्ण की वजलीलाओं का वर्णन किया वैष्णवों द्वारा यह टीका अति सम्मानित है। श्रीधर गया है । स्वामी काशी में मणिकर्णिका घाट के समीप 'नरसिंहचौक' भाग्यक्षद्वादशी-पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्रयुक्त द्वादशी को हरिहर में रहते थे तथा जनश्रुति के अनुसार पुरी के गोवर्धन भगवान् की प्रतिमा का पूजन करना चाहिए। इसमें अर्ध मठ से सम्बद्ध थे। इन्होंने भागवत पुराण को बोपदेव की मूर्ति हरि तथा शेष अर्ध मूर्ति हर (शिव) का प्रतिनिधित्व रचना स्वीकार नहीं किया है । इन्होंने यह व्याख्या अद्वैत- करती है। तिथि चाहे द्वादशी हो या सप्तमी, दोनों दिन वादी दृष्टि से की है, फिर भी सभी वैष्णवाचार्य इनको समान फल मिलता है। इसी प्रकार नक्षत्र चाहे पूर्वाप्रामाणिक व्याख्याकार मानते हैं। फाल्गुनी हो या रेवती अथवा धनिष्ठा, वही फल होता है। भागवतमाहात्म्य-पद्यपुराण और स्कन्दपुराण के अंश रूप इस कृत्य से मनुष्य पुत्र, पौत्र तथा राज्य प्राप्त करता है । में दो भागवतमाहात्म्य पाये जाते हैं। उनमें पद्मपुराणीय पूर्वाफाल्गनी भाग्य के नाम से पुकारा जाता है, क्योंकि माहात्म्य अधिक प्रचलित है। यह भागवत पुराण की इसका अधिपति भग देवता है। 'ऋक्ष' का अर्थ है नक्षत्र रचना से बहुत पीछे रचा गया। इसमें उद्धृत एक (भाग्य + ऋक्ष, भाग्यक्ष)। कथा से कुछ ऐसा प्रतीत होता है कि यह पुराण दक्षिण भागीरथी-सगर के प्रपौत्र राजा भगीरथ ने अपने देश में रचा गया था। इस कथा में भक्ति एक स्त्री के ६०,००० पूर्वजों (सगर के पुत्रों) को, जो कपिल के शाप रूप में अवतरित होकर कहती है कि मैं द्रविड देश में से भस्म हो गये थे, तारने के लिए देवनदी गङ्गा को उत्पन्न हुई थी, कर्णाटक में बड़ी हुई, महाराष्ट्र में मेरा स्वर्ग से पृथ्वी पर तथा पृथ्वी से पाताल की ओर ले जाने कुछ-कुछ पोषण हुआ और गुजरात में वृद्ध हो गयी। फिर के लिए घोर तपस्या की थी। भगीरथ के प्रयत्न से पृथ्वी मैं घोर कलियुग के योग से पाखण्डों द्वारा खण्डित-अंगिनी पर आने के कारण गङ्गा को भागीरथी कहते हैं। दे० और दुर्बल होकर ज्ञान-वैराग्य नामक अपने पुत्रों के साथ रामायण, १.३८.४४ ।। बहुत दिनों तक मन्दता में पड़ी रही । सम्प्रति वृन्दावन भागरि-ऋग्वेद शाखा का एक ग्रन्थ बृहद्देवता है, जिसमें पहुँच कर नवीना, सुरूपिणी और सम्यक् प्रकार से परि- वैदिक आख्यानादि विस्तार से लिखे गये हैं। यह ग्रन्थ पूर्ण हो गयी हूँ (१.४८-५०)। शौनक द्वारा रचित बताया जाता है। कुछ लोग इसे भागवतसम्प्रदाय—दे० 'भागवत' । शौनक सम्प्रदाय के किसी व्यक्ति, भागुरि और आश्वलायन भागवतलीलारहस्य-महाप्रभु वल्लभाचार्य रचित एक की रचना बतलाते हैं। अप्रकाशित ग्रन्थ । भाट्टदिनकर-यह भट्ट दिनकर रचित (१६०० ई०) पार्थभागवतलघुटीका-विष्णुस्वामी संप्रदाय के साहित्य में सारथि मिश्र के 'शास्त्रदीपिका' ग्रन्थ की टीका है। यह इसकी गणना होती है। यह वरदराजकृत ह तथा इसकी पूर्वमीमांसा विषयक ग्रन्थ है। ६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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