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________________ ४७४ भाद्रदीपिका-भारत भाट्टदीपिका-सत्रहवीं शताब्दी में उत्पन्न पूर्वमीमांसा के थी)। इसकी पूजा में गान तथा जंगली नाचों का समा आचार्य खण्डदेव द्वारा जैमिनिसूत्रों के वार्तिक पर रचित वेश है।। व्याख्या ग्रन्थ । इसमें शब्द का देवत्व अर्थात् 'वेदमन्त्र ही। भानुदास-सोलहवीं शताब्दी के महाराष्ट्रीय भकों में देवता हैं' इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। भानुदास की गणना होती है। इनके रचे अभङ्गों (पदों) भातपात-एक पंक्ति में बैठकर समान कुल के लोगों द्वारा के कारण इनकी प्रसिद्धि है। कच्चा भोजन करना । यह विचारधारा बहुत प्राचीन है। पुराणों और स्मृतियों में हव्य-कव्यग्रहण के सम्बन्ध में __ भानुव्रत-सप्तमी के दिन यह व्रत प्रारम्भ होता है। उस ब्राह्मणों की एक पंक्ति में बैठने की पात्रता पर विस्तार दिन नक्तविधि से आहार करना चाहिए। सूर्य इसके देवता है। एक वर्षपर्यन्त इसका अनुष्ठान होता है। वर्ष से विचार हआ है। मनुस्मति (३.१४९) में लिखा है कि के अन्त में गौ तथा स्वर्ण के दान का विधान है। इस धर्मज्ञ पुरुष हव्य (देवकर्म) में ब्राह्मण की उतनी जाँच न कृत्य से व्रती स्वर्ग लोक जाता है । करे, किन्तु कव्य (पितृकर्म) में आचार-विचार, विद्या, कुल, शील की अच्छी तरह जाँच कर ले । एक लम्बी सूची भानुसप्तमी-यदि रविवार के दिन सप्तमी पड़े तो उसे अपातयता की दी हुई है । प्रसङ्ग से जान पड़ता है कि भानुसप्तमी कहा जाता है। दे० गदाधरपद्धति, पृ० मनुस्मृति के समय तक द्विज मात्र एक दूसरे के यहाँ ६१०। इस दिन उपवास, व्रत तथा सूर्यपूजन का भोजन करते थे। विचारवान् व्यक्ति यह देख लेते थे कि विधान है। जिसके यहाँ हम भोजन करते हैं, वह स्वयं सच्चरित्र है, भामतो-शांकर भाष्य की एक विख्यात व्याख्या, जो मूल उसका कुल सदाचारी है और उसके यहाँ छूत वाले रोगी के समान अपना गौरव रखती है। इसके रचयिता दार्शतो नहीं है। जब अधिक संख्या में लोग खाने बैठते थे निकपंचानन वाचस्पति मिश्र (नवीं शताब्दी) थे। शाङ्कर तब भी इसका विचार होता था । पंक्ति का विचार हव्य- मत को समझने के लिए इसका अध्ययन अनिवार्य समझा कव्य में ब्राह्मणों के अन्तर्गत चलता था। देखादेखी पंक्ति जाता है। अद्वैतवाद का यह प्रामाणिक ग्रन्थ है। ग्रन्थ का ऐसा ही नियम और वर्गों में भी चल पड़ा। जिसे के नामकरण को एक कथा है । वाचस्पति मिश्र की पत्नी अपाङ्क्तेय या पंक्ति से बाहर कर देते थे वह फिर पतित का नाम भामती था। ग्रन्थ प्रणयन के समय वह मिश्रसमझा जाता था । बड़े भोज उन्हीं लोगों में सम्भव थे जी की सेवा करती रही, परन्तु वे स्वयं ग्रन्थ रचना में जो एक ही स्थान के रहनेवाले, एक ही तरह का काम इतने तल्लीन रहते थे कि उसको बिल्कुल भूल गये । ग्रन्थ या व्यवसाय करते थे और जिनकी परस्पर नातेदारियाँ समाप्ति पर भामती ने व्यंग्य से इसकी शिकायत की। थीं। विवाह भी इसी प्रकार समान कर्म और वर्ण, समान वाचस्पति ने उसको सन्तुष्ट करने के लिए ग्रन्थ का नाम कुलशील वालों में होना आवश्यक था। इसीलिए भात- 'भामती' रख दिया। पाँत का जन्म हो गया। भारत-इस देश का प्राचीन नाम भारत है। इस नामभादू-बाग्दी नाम की एक वनवासी जाति मध्य भारत करण की कई परम्पराएँ हैं। एक बहप्रचलित परम्परा तथा पश्चिम बङ्गाल में बसती है । यह सनातन हिन्दू धर्म है कि दुष्यन्तकुमार और चक्रवर्ती राजा भरत के नाम तथा पशु एवं प्रकृति की पुजारी है। इस जाति के लोग पर इस देश का नाम भारत अथवा भारतवर्ष पड़ा। मनसा देवी को पूजा करते हैं, जिसकी प्रतिमा सारे ग्राम दूसरी परम्परा श्रीमद्भागवत और जैन पुराणों में मिलती में घुमायो जाती है। अन्त में एक तालाब में मूर्तिविसर्जन है। इसके अनुसार ऋषभदेव के पुत्र महाराज भरत के, जो करते हैं। ये एक नारी साधुनी की मूर्ति को भी घुमाते आगे चलकर बड़े महात्मा और योगी हो गये थे, नाम हैं, जिसकी उपाधि 'भादू' है। इसके बारे में कहा जाता पर इस देश का नाम भारत पड़ा। परन्तु अधिक सम्भव है कि यह पचेत के राजा की पुत्री थी तथा अपनी जान पड़ता है कि भरतवर्ग (कबीले) के नाम पर, जो जाति की भलाई के लिए इसने अविवाहितावस्था राजनीति, धर्म, विद्या और कला सभी में अग्रणी था, में ही अपना जीवन दान कर दिया था ( मर गयी इस देश का नाम भारत पड़ा। इस देश की सन्तति और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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