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________________ भर्तृ यज्ञ-भविष्यपुराण ४७१ प्रभति आचार्यों के अपसिद्धान्तों के प्रभाव से मीमांसा वे एक नाम 'महादेव' में आत्मसात हो गये । यथा-भव शास्त्र लोकायतवत हो गया। विशिष्टाद्वैतवादी ग्रन्थों में तथा शर्व अग्नि के भयानक रूप को ( यज्ञ वाले क्षेमकारी उल्लिखित भर्तमित्र और श्लोकवातिकोक्त मीमांसक भर्तृ- रूप को नहीं ) कहते थे, जो बाद में रुद्र के गुण माने मित्र एक ही व्यक्ति थे या भिन्न, इसका निर्णय करना जाकर उनके ही पर्याय बन गये। कठिन है । परन्तु कुमारिल की उक्ति से मालूम होता है भवदेव मिश्र-पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्त अथवा सोलहवीं कि ये दो पृथक् व्यक्ति थे । मुकुल भट्ट ने 'अभिधावृत्ति- के आरम्भ में वेदान्ताचार्य भवदेव मिश्र हुए थे । इन्होंने मातृका' में भी भर्तमित्र का नाम निर्देश किया है वेदान्तसूत्र पर एक टीका निर्मित की, जिसका नाम (पृ० १७)। वेदान्तसूत्रचन्द्रिका है। भर्तृयज्ञ-कात्यायनसूत्र के अनेक भाष्यकार तथा वृत्तिकार भवानी ( भुइयन)-भव (शिव) की पत्नी देवी, उमा, हुए हैं। उनमें से भर्तयज्ञ भी एक है। गौरी अथवा दुर्गा के ही पर्याय भवानी तथा भुइयन हैं। भर्तृहरि-भर्तृहरि का नाम भी यामुनाचार्य के ग्रन्थ में भवानीयात्रा-चैत्र शुक्ल अष्टमी को यह यात्रा की जाती उल्लिखित हआ है । इनको वाक्यपदीयकार से अभिन्न है। इसमें भवानी की १०८ प्रदक्षिणाएँ तथा जागरण मानने में कोई अनुपपत्ति नहीं प्रतीत होती । परन्तु इनका करना चाहिए । दूसरे दिन भवानी की पूजा का विधान है। कोई अन्य ग्रन्थ अभीतक उपलब्ध नहीं हुआ है । वाक्य- भवानीव्रत-(१) तृतीया के दिन व्रती को पार्वतीजी की पदीय व्याकरण विषयक ग्रन्थ होने पर भी प्रसिद्ध दार्श- प्रतिमा पर गन्ध, पुष्प, धूप, दीप आदि चढ़ाने चाहिए । निक ग्रन्थ है। अद्वैत सिद्धान्त ही इसका उपजीव्य है, एक वर्षपर्यन्त इसका अनुष्ठान होता है। वर्ष के अन्त इसमें सन्देह नहीं है । किसी-किसी आचार्य का मत है कि में गौ का दान विहित है (पद्मपुराण)। भर्तृहरि के 'शब्दब्रह्मवाद' का ही अवलम्बन करके (२) यदि कोई स्त्री या पुरुष वर्ष भर पूर्णमासी तथा आचार्य मण्डनमिश्र ने ब्रह्मसिद्धि नामक ग्रन्थ का निर्माण अमावस्या के दिन उपवास रखकर वर्ष के अन्त में सुगकिया था। इस पर वाचस्पति मिश्र की ब्रह्मतत्त्वसमीक्षा न्धित पदार्थों सहित पार्वतीजी की प्रतिमा का दान करता नामक टीका है। उत्पलाचार्य के गुरु, कश्मीरीय शिवा- है तो वह भवानी के लोक को प्राप्त करता है। (लिङ्गद्वैत के प्रधान आचार्य सोमानन्दपाद ने स्वरचित 'शिव- पुराण)। दृष्टि' ग्रन्थ में भर्तृहरि के शब्दाद्वैतवाद को विशेष रूप (३) पार्वतीजी के मन्दिर में तृतीया को नक्त पद्धति से समालोचना की है। शान्तरक्षित कृत तत्त्वसंग्रह, से आहारादि करना चाहिए। एक वर्ष के अन्त में गौ अविमुक्तात्मा कृत इष्टसिद्धि तथा जयन्त कृत न्यायमञ्जरी का दान विहित है । (मत्स्यपुराण) में भी शब्दाद्वैतवाद का उल्लेख मिलता है। उत्पल भविष्यपुराण-अठारह पुराणों में से एक शैव पुराण । तथा सोमानन्द के वचनों से ज्ञात होता है कि भर्तृहरि इसका यह नाम इसलिए पड़ा कि इसमें भविष्य में होने तथा तदनुसारी शब्दब्रह्मवादी दार्शनिक गण 'पश्यन्ती' वाली घटनाओं का वर्णन है। इसमें मुसलमानों, अग्रेजों वाक् को ही शब्दब्रह्मरूप मानते थे। यह भी प्रतीत होता और मौनों (मंगोल आदि जातियों) के आक्रमणों का भी है कि इस मत में पश्यन्ती परा वारूप में व्यवहृत होती वर्णन पाया जाता है। इसमें इतनी आधुनिक घटनाओं के थी । यह वाक् विश्व जगत् की नियामक तथा अन्तर्यामी वर्णन बाद में ऐसे जोड़ दिये गये कि इस पुराण का सन्तुलन चित्-तत्त्व से अभिन्न है। ही शिथिल हो गया। नारदपुराण के अनुसार इसके पाँच भव-शतपथ ब्राह्मण के कथनानुसार अग्नि को प्राच्य पर्व हैं-(१) ब्राह्मपर्व -(२) विष्णुपर्व (३) शिवपर्व लोग शर्व तथा वाहीक लोग भव कहते थे । किन्तु अथर्व- (४) सूर्यपर्व और (५) प्रतिसर्ग पर्व । इसमें श्लोकों की वेद में भव तथा शर्व रुद्र के समकक्ष देवता हैं, जबकि संख्या चौदह हजार है । मत्स्यपुराण के अनुसार श्लोकों वाजसनेयी संहिता के अनुसार भव तथा शर्व रुद्र के की संख्या साढ़े चौदह हजार है । कुछ असंगतियों के होते पर्याय है । रुद्र तथा शिव के अनेक पर्याय तथा विरुद हुए भो भविष्यपुराण ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण पहले अलग-अलग देबों के नाम थे, किन्तु कालान्तर में है। इसमें मग ब्राह्मणों के शकद्वीप से आने का वर्णन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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