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________________ ४७० भरत स्वामी-भत मित्र काव्यकला का मौलिक ग्रन्थ है। संस्कृत के सभी नाटक- भर्तृप्राप्तिवत-नारदजी ने इस व्रत की महिमा उन अप्सकार भरत मुनि के अनुशासन पर चलते और इससे 'नट' राओं को सुनायी थी, जो भगवान् नारायण को पति रूप में भी भरत कहे जाते हैं । पाना चाहती थीं। वसन्त शुक्ल द्वादशी को इसका भरत स्वामी-सायण ने अपने ऋग्वेदभाष्य में भट्टभास्कर अनुष्ठान होता है । इस दिन उपवास रखकर हरि तथा मिश्र एवं भरत स्वामी नामक दो वेदभाष्यकारों का लक्ष्मी का पूजन करना चाहिए। दोनों की चाँदी की उल्लेख किया है । सामसंहिता के भाष्यकारों में भी भरत । प्रतिमाएँ बनवाकर तथा कामदेव का अङ्गन्यास विभिन्न स्वामी का नामोल्लेख हुआ है। नामों से मूर्ति के भिन्न भिन्न अवयवों में करना चाहिए। द्वितीय दिवस किसी ब्राह्मण को मूर्तियों का दान कर भरथरीवैराग्य-सत्रहवीं शताब्दी में स्वामी हरिदास देना चाहिए। विख्यात महात्मा हए हैं। इनके रचे ग्रन्थ 'साधारण भनाथ नाथ सम्प्रदाय के प्रसिद्ध नव नाथों में से सिद्धान्त', 'रस के पद', 'भरथरीवैराग्य' कहे जाते हैं। इनका उपासनात्मक मत चैतन्य महाप्रभु के मत से मिलता एक । गुरु गोरखनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, भर्तृनाथ, गोपीचन्द्र जुलता है। ये सभी अब तक जीवित और अमर माने जाते हैं । कहते हैं कि कभी-कभी साधकों को इनके दर्शन हो जाया भरद्वाज-ऋग्वेदीय मन्त्रों की शाब्दिक रचना जिन ऋषि करते हैं। परिवारों द्वारा हुई है उनमें सात अत्यधिक प्रसिद्ध हैं। भरद्वाज ऋषि उनमें अन्यतम है। ये छठे मण्डल के भत प्रपञ्च-वेदान्त के एक भेदाभेदवादी प्राचीन व्याऋषिरूप में विख्यात है ( आश्वला० गृ० सू० ३.४,२; ख्याता । इन्होंने कठ और बृहदारण्यक उपनिषदों पर भी शांखा० गृ० सू० ४.१२; बृहद्देवता ५.१०२, जहाँ इन्हें भाष्य रचना की थी। भर्तप्रपञ्च का सिद्धान्त ज्ञान-कर्मबृहस्पति का पौत्र कहा गया है) । पञ्च० ब्रा० ( १५. समुच्चयवाद था। दार्शनिक दृष्टि से इनका मत द्वैता द्वत, भेदाभेद, अनेकान्त आदि अनेक नामों से प्रसिद्ध था। ३-७ ) में इन्हें दिवोदास का पुरोहित कहा गया है। दिवोदास के साथ इनका सम्बन्ध काठक सं० ( २.१०) इसके अनुसार परमार्थ एक भी है और नाना भी; वह से भी प्रकट होता है जहाँ इन्हें प्रतर्दन को राज्य देने ब्रह्मरूप में एक है और जगद्रूप में नाना है। इसी लिए वाला कहा गया है । ऋषि तथा मन्त्रकार के रूप में इस मत में एकान्ततः कर्म अथवा ज्ञान को स्वीकार न कर दोनों की सार्थकता मानी गयी है। भर्तप्रपञ्च प्रमाणभरद्वाज का उल्लेख अन्य संहिताओं तथा ब्राह्मणों में समुच्चय वादी थे। इनके मत में लौकिक प्रमाण और प्रायः हुआ है । रामायण और महाभारत में भी भारद्वाज ( गोत्रज ) ऋषि का उल्लेख महान् चिन्तक और ज्ञानी वेद दोनों ही सत्य हैं । इसलिए उन्होंने लौकिक प्रमाणके रूप में हुआ है। गम्य भेद को और वेदगम्य अभेद को सत्य रूप में माना है। इसी कारण इनके मत में जैसे केवल कर्म मोक्ष का भरुकच्छ--पश्चिम समुद्र का तटवर्ती प्राचीन और प्रसिद्ध साधन नहीं हो सकता, वैसे ही केवल ज्ञान भी मोक्ष का तीर्थ । इसका शुद्ध नाम भृगुकच्छ है । सूरर और बड़ोदा साधन नहीं हो सकता । मोक्ष प्राप्ति के लिए ज्ञान-कर्मके मध्य नर्मदा के उत्तर तट पर यह स्थान है । यहाँ समुच्चय ही प्रकृष्ट साधन है । महर्षि भृगु ने गायत्री का पुरश्चरण और अनेक तपस्याएँ की भर्तमित्र-जयन्त कृत 'न्यायमञ्जरी' (१० २१२,२२६ ) थीं । गरुड ने भी यहाँ तपस्या की थी। प्राचीन काल में तथा यामुनाचार्य के 'सिद्धित्रय' (पृ० ४-५ ) में इनका यह प्रसिद्ध बंदरगाह था। नामोल्लेख हुआ है। इससे प्रतीत होता है कि ये भर्तद्वादशीव्रत-चैत्र शुक्ल द्वादशी को इस व्रत का अनु- भी वेदान्ती आचार्य रहे होंगे। भर्तृमिश्र ने मीमांसा ष्ठान होता है । एकादशी को उपवास कर द्वादशी को पर भी ग्रन्थ रचना की थी। कुमारिल ने श्लोकवार्तिक विष्णु भगवान् की पूजा करनी चाहिए । प्रति मास विष्णु में ( १.१.१.१०; १.१.६.१३०-१३१ ) इनका उल्लेख के बारह नामों से केशव से दामोदर तक एक एक लेना किया है। पार्थसारथि मिश्र ने न्यायरत्नाकर में ऐसा ही चाहिए । यह व्रत एक वर्षपर्यन्त चलता है। आशय प्रकट किया है। कुमारिल कहते हैं कि भर्तमित्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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