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________________ ४३२ प्रोद्गीतागम-फलत्या इसका उल्लेख ऐतरेय ब्राह्मण (८.२२) में है। यजुर्वेद उमा विहङ्गमः कालः कुब्जिनी प्रिय पावको । संहिता में इन्हें सभी यज्ञविद्याओं के ज्ञाता कहा प्रलयाग्निर्नीलपादोऽक्षरः पशुपतिः शशी ।। गया है। तीन प्रयमेधसों का उल्लेख तैत्तिरीय ब्राह्मण फूत्कारो यामिनी व्यक्ता पावनो मोहवर्द्धनः । (२.१९) में हुआ है। गोपथ ब्राह्मण (१.३.१५) में इन्हें निष्फला वागहङ्कारः प्रयागो ग्रामणीः फलम् ॥ भारद्वाज कहा गया है। फट-तान्त्रिक मन्त्रों का एक सहायक शब्द । इसका स्वयं प्रोद्गीत आगम-प्रोद्गीत का नाम उद्गीत भी है । यह __ कुछ अर्थ नहीं होता, यह अव्यय है और मन्त्रों के अन्त रौद्रिक आगमों में से एक है। में आघात या घात क्रिया के बोधनार्थ जोड़ा जाता है । प्रौढिवाद-किसी मान्यता को अस्वाभाविक रूप से, बल- यह अस्त्रबीज है । 'बीजवर्णाभिधान' में कहा गया है : पूर्वक स्थापित करना। यथा अद्वैत वेदान्तियों का 'फडत्वं शस्त्रमायुधम् ।' अर्थात् फट् शस्त्र अथवा आयुध अन्तिम वाद अजातवाद प्रौढिवाद. कहा जा सकता है, के अर्थ में प्रयुक्त होता है। अभिचार कर्म में 'स्वाहा' क्योंकि यह सब प्रकार की उत्पत्ति को, चाहे वह विवर्त के स्थान में इसका प्रयोग होता है। वाजसनेयी संहिता के रूप में कही जाय, चाहे दृष्टिसृष्टि या अवच्छेद अथवा (७.३) में इसका उल्लेख हुआ है : प्रतिबिम्ब के रूप में, अस्वीकार करता है और कहता है 'देवांशो यस्मै त्वेडे तत्सत्यमुपरि प्रता भनेन हतोऽसौ कि जो जैसा है वह वैसा ही है और सब विश्व ब्रह्म है। फट् ।' 'वेददीप' में महीधर ने इसका भाष्य इस प्रकार ब्रह्म अनिर्वचनीय है, उसका वर्णन शब्दों द्वारा हो ही किया है : नहीं सकता, क्योंकि हमारे पास जो भाषा है, वह द्वैत की ही है, अर्थात् जो कुछ हम कहते हैं वह भेद के आधार "असौ द्वेष्यो हतो निहतः सन् फट् विशीर्णो भवतु । पर ही। 'त्रिफला विशरणे' अस्य विबन्तस्यैतद् रूपम् । फलतीति प्लक्ष प्रास्त्रवण-एक तीर्थस्थान का नाम, जो सर फट, डलयोरैक्यम् । स्वाहाकारस्थाने फडित्यभिचारे स्वती के उद्गम स्थान से चवालीस दिन की यात्रा पर । प्रयुज्यते।" था। इसका उल्लेख पञ्चविंश ब्राह्मण (२५.१०.१६.२२), फलतृतीया-शुक्ल पक्ष की तृतीया को इस व्रत का आरम्भ कात्यायनश्रौतसूत्र (२४.६.७), लाट्यायनश्रौतसूत्र (१०. होता है। एक वर्ष पर्यन्त यह चलता है। देवी दुर्गा १७, ११,१४) तथा जैमिनीय-उपनिषद् ब्रा० (४.२६.१२) इसकी देवता हैं । यह व्रत अधिकांशतः महिलाओं के लिए में हुआ है। ऋग्वेदीय आश्व० श्री० सू०, १२.६; शाला० विहित है । इसमें फलों के दान का विधान है परन्तु व्रती श्रौ० सू०, १३.१९,२४ में इस क्षेत्र को 'प्लक्ष-प्रस्रवण' स्वयं फलों का परित्याग कर नक्त पद्धति से आहार करता कहा गया है, जिसका अर्थ सरस्वती का उद्गम स्थान है तथा प्रायः गेहूँ के बने खाद्य तथा चने, मूंग आदि की है न कि इसके अन्तर्धान होने का स्थान । दालें ग्रहण करता है। परिणामस्वरूप उसे कभी भी सम्पत्ति अथवा धान्यादि का अभाव तथा दुर्भाग्य नहीं देखना पड़ता। फ-व्यञ्जन वर्णों के पञ्चम वर्ग का द्वितीय अक्षर । काम फलत्यागवत-यह व्रत मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया, अष्टमी, धेनुतन्त्र में इसका तत्त्व निम्नांकित है : द्वादशी अथवा चतुर्दशी को आरम्भ होता है, एक वर्ष फकारं शृणु चार्वङ्गि रक्तविद्युल्लतोपमम् । पर्यन्त चलता है। इसके शिव देवता हैं। एक वर्ष तक चतुर्वर्गप्रदं वर्ण पञ्चदेवमयं सदा ॥ व्रती को समस्त फलों के सेवन का निषेध है । वह केवल पञ्चपाणमयं वर्ण सदा त्रिगुण संयुतम् । १८ धान्य ग्रहण कर सकता है। उसे भगवान् शंकर, आत्मादितत्त्व संयुक्तं त्रिबिन्दु सहितं सदा ।। नन्दीगण तथा धर्मराज की सुवर्ण प्रतिमाएं बनवाकर १६ तन्त्रशास्त्र में इसके निम्नांकित नाम है : प्रकार के फलों की आकृति के साथ स्थापित करना फः सखी दुर्गिणी धूम्रा वामपाश्र्वी जनार्दनः । चाहिए । फलों में कूष्माण्ड, आम्र, बदर, कदली, उनसे जया पादः शिखा रौद्रो फेत्कारः शाखिनी प्रियः ।। कुछ छोटे आमलक, उदुम्बर, बदरी तथा अन्य फलों (जैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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