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________________ फलवत-फलाहारहरिप्रियव्रत ४३३ इमली) की त्रिधातु की आकृतियाँ बनवाकर धान्य के ढेर पर रखनी चाहिए । दो कलशों को जल से परिपूर्ण करके वस्त्र से आच्छादित किया जाय । वर्ष के अन्त में पूजा तथा व्रत के उपरान्त उपर्युक्त समस्त वस्तुएँ तथा एक गौ किसी सपत्नीक ब्राह्मण को दान में दे दी जायँ । यदि उपर्युक्त वस्तुओं को देने में व्रती असमर्थ हो तो केवल धातु के फलों, कलश तथा शिव एवं धर्मराज की प्रति- माएँ ही दान में दे दे। इस आयोजन से व्रती रुद्रलोक में सहस्रों युगों तक निवास करता है। फलवत-(१) आषाढ़ से चार मास तक विशाल फलों के उपभोग का त्याग (जैसे कटहल, कूष्माण्ड) तथा कार्तिक मास में उन्हीं फलों को सोने के बनवाकर एक जोड़ा गौ के साथ दान करना, इसको फलव्रत कहते हैं। इसके सूर्य देवता हैं। इसके आचरण से सूर्यलोक में सम्मान मिलता है । (२) कालनिर्णय, १४० तथा ब्रह्मपुराण के अनुसार भाद्रपद शुक्ल प्रतिपदा को व्रती को मौन व्रत धारण करते हुए तीन प्रकार के (प्रत्येक प्रकार के फलों में १६, १६) पके हुए फल लेकर उन्हें देवार्पण करके किसी ब्राह्मण को दे देना चाहिए। फलषष्ठीवत-मार्गशीर्ष शुक्ल पञ्चमी को नियमों का पालन, षष्ठी को एक सुवर्णकमल तथा एक सुवर्णफल बनवाना चाहिए। मध्याह्न काल में दोनों को किसी मृत्पात्र या ताम्रपात्र में रखना चाहिए। उस दिन उपवास रखते हुए फूल, फल, गन्ध, अक्षत आदि से उनका पूजन करना चाहिए। सप्तमी को पूर्व वस्तुएँ निम्नोक्त शब्द बोलते हुए दान कर देनी चाहिए 'सूर्यः मां प्रसीदतु' । व्रती को अगले कृष्ण पक्ष की पञ्चमी तक एक फल त्याग देना चाहिए। यह आचरण एक वर्ष तक हो, प्रत्येक मास में सप्तमी के दिन सूर्य के बारह नामों में से किसी एक नाम का जप किया जाय । इन आचरणों से व्रती समस्त पापों से मुक्त होकर सूर्यलोक में सम्मानित होता है। फलसङ्क्रान्तिव्रत-सङ्क्रान्ति के दिन स्नानोपरान्त पुष्पादि से सूर्य का पूजन करना चाहिए। बाद में शर्करा से परिपूर्ण पात्र आठ फलों के सहित किसी को दान करना चाहिए । तदुपरान्त किसी कलश पर सूर्य की प्रतिमा रखकर पुष्पादि से उसका पूजन करना चाहिए । फलसप्तमी-(१) भाद्र शुक्ल सप्तमी को उपवास रखते हुए सूर्य का पूजन, अष्टमी को प्रातः सूर्यपूजन तथा ब्राह्मणों को खजूर, नारिकेल तथा मातुलुङ्ग फलों का दान किया जाय तथा ये शब्द बोले जायँ : 'सूर्यः प्रसीदतु' । व्रती अष्टमी को एक फल खाये तथा इन शब्दों का उच्चारण करे : 'सर्वाः कामनाः परिपूर्णा भवन्तु' । मन के सन्तोषार्थ वह और फल खा सकता है । एक वर्ष इस कृत्य का आचरण करना चाहिए। व्रती इससे पुत्र-पौत्र प्राप्त करता है। (२) भाद्र शुक्ल चतुर्थी, पञ्चमी तथा षष्ठी को क्रमशः अयाचित, एकभक्त तथा उपवास पद्धति से आहार करे । गन्धाक्षत, पुष्पादि से सूर्य का पूजन तथा सूर्यप्रतिमा जिस वेदी पर रखी जाय उसके सम्मुख रात्रि को शयन करे । सप्तमी के दिन पूजनोपरान्त फलों का नैवेद्य अर्पण किया जाय, ब्राह्मणों को भोजन कराया जाय, तदनन्तर स्वयं भोजन करना चाहिए । यदि फलों का नैवेद्य अर्पण करने की क्षमता न हो तो गेहूँ या चावल के आटे में घी, गुड, जायफल का छिलका तथा नागकेसर मिलाकर, नैवेद्य बनाकर अर्पित किया जाय । यह क्रम एक वर्ष तक चलना चाहिए। व्रत के अन्त में सामर्थ्य हो तो सोने के फल, गौ, वस्त्र, ताम्रपात्र का दान किया जाय । व्रती निर्धन हो तो ब्राह्मणों को फल तथा तिल के चूर्ण का भोजन करा दे। इससे व्रती समस्त पापों, कठिनाइयों तथा दारिद्रय से दूर होकर सूर्यलोक को प्राप्त करता है। (३) मार्गशीर्ष शुक्ल पञ्चमी को नियमों का पालन किया जाय, षष्ठी को उपवास, एक सुवर्णकमल, एक फल तथा शर्करा दान में दी जाय। दान के समय 'सूर्यः मां प्रसीदतु' मंत्रोच्चारण किया जाय । सप्तमी के दिन ब्राह्मणों को दुग्ध सहित भोजन कराया जाय । उस दिन से आने वाली कृष्ण पक्ष की पञ्चमी तक व्रती को कोई एक फल छोड़ देना चाहिए । सूर्य नारायण के भिन्न-भिन्न नाम लेकर उनका पूजन साल भर चलाना चाहिए । वर्ष के अन्त में सपत्नीक ब्राह्मण को वस्त्र, कलश, शर्करा, सुवर्ण का कमल तथा फलादि देकर सम्मान करना चाहिए। इससे व्रती समस्त पापों से मुक्त होकर सूर्यलोक जाता है। फलाहारहरिप्रिय व्रत-विष्णुधर्मोत्तर ( ३.१४९.१-१०) के अनुसार यह चतुर्तिव्रत है। वसन्त में विषुव दिवस से तीन दिन के लिए उपवास प्रारम्भ कर वासुदेव भगवान की पूजा करनी चाहिए । तीन मास तक यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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