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________________ पुरुषोत्तमयात्रा-पुरोहित कृष्ण हैं । वह भी एक प्रकार का कल्पवृक्ष ही है । तीर्थ- उसी उत्सव के हो सकते हैं। इस सम्बन्ध में भ्रमपूर्ण यात्री को श्री कृष्ण के समक्ष स्थित गरुड़ की पूजा करनी अतिरिक्त परिकल्पनाएँ अवांछनीय और अस्पृहणीय हैं। चाहिए और तब कृष्ण, सुभद्रा तथा संकर्षण के प्रति पुरुषोत्तमयात्रा-जगन्नाथपुरी में पुरुषोत्तम (विष्णु ) मन्त्रोच्चारण करना चाहिए। ब्रह्मपुराण (५७.४२-५०) भगवान् की बारह यात्राएँ मनायी जाती हैं। यथा श्री कृष्ण के भक्तिपूर्ण दर्शन से मोक्ष का विधान करता स्नान, गुण्डिचा, हरिशयन, दक्षिणायन, पार्श्वपरिवर्तन, है। पुरी में समुद्रस्नान का बड़ा महत्व है पर यह भूलतः उत्थापनैकादशी, प्रावरणोत्सव, पुष्याभिषेक, उत्तरायण, पूर्णिमा के दिन ही अधिक महत्वपूर्ण है । तीर्थयात्री को दोलायात्रा, दमनक चतुर्दशी तथा अक्षय तृतीया । दे० इन्द्रद्युम्नसेतु में स्नान करना, देवताओं का तर्पण करना गदाधरपद्धति, कालसार, पृ० १८३-१९० । तथा ऋषि-पितरों को पिण्डदान करना चाहिए। पुरुषोत्तमसंहिता-यह वैष्णव संहिता है। आचार्य मध्वब्रह्मपुराण (अ० ६६) में इन्द्रद्युम्नसेतु के किनारे सात रचित वेदान्तभाष्य के संक्षिप्त संस्करण 'अनुभाष्य' का दिनों की गुण्डिचा यात्रा का उल्लेख है। यह कृष्ण, मुख्य अंश पुराणों तथा वैष्णव संहिताओं से उद्धृत है । संकर्षण तथा सुभद्रा के मण्डप में ही पूरी होती है । ऐसा इन वैष्णव संहिताओं में पुरुषोत्तमसंहिता आदि मुख्य हैं । बताया जाता है कि गुण्डिचा जगन्नाथ के विशाल मन्दिर पुरुषोत्तमाचार्य-द्वैताद्वैतवादी वैष्णवों के सैद्धान्तिक से लगभग दो मील दूर जगन्नाथ का ग्रीष्मकालीन भवन व्याख्याकार विद्वान् । इन्होंने निम्बार्क स्वामी के मत का है । यह शब्द सम्भवतः 'गुण्डी' से लिया गया है जिसका अनुसरण कर उसे परिपुष्ट किया है। इनके प्रसिद्ध ग्रन्थ अर्थ बँगला तथा उड़िया में 'मोटी लकड़ी का कुन्दा' 'वेदान्तरत्नमंजूषा' में निम्बार्करचित 'दशश्लोकी' या होता है । यह लकड़ी का कुन्दा एक पौराणिक कथा के 'वेदान्तकामधेनु' की विस्तृत व्याख्या है। अनुसार समुद्र में बहते हुए इन्द्रद्युम्न को मिला था। पुरोडाश-यज्ञों में देवताओं को अर्पित किया जाने वाला पुरुषोत्तम क्षेत्र में धार्मिक आत्मघात का भी ब्रह्मपुराण पक्वान्न, जो मिट्टी के तवों पर सेका जाता था । ऋग्वेद में उल्लेख है। वट वृक्ष पर चढ़कर या उसके नीचे या ( ३.२८,२,४१,३,५२,२,४.२४,५,६.२३,६;८.३१,२ ) समुद्र में, इच्छा या अनिच्छा से, जगन्नाथरथ के मार्ग तथा अन्य संहिताओं में यज्ञ के रोट को 'पुरोडाश' कहा में, जगन्नाथ क्षेत्र की किसी गली में या किसी भी स्थल गया है । यह देवताओं का प्रिय भोज्य था। पर जो प्राण त्याग करता है वह निश्चय ही मोक्ष प्राप्त पुरोधा-(१) धार्मिक कार्यों का अग्रणी अथवा नेता । यह करता है। ब्रह्मपुराण (७०.३-४) के अनुसार यह तीन घरेलू पुरोहित के पद का बोधक है । गुना सत्य है कि यह स्थल परम महान् है। पुरुषोत्तम- (२) राजा की मन्त्रिपरिषद् के प्रमुख सदस्यों में तीर्थ में एक बार जाने के उपरान्त व्यक्ति पुनः गर्भ में इसकी भी गणना है। धार्मिक तथा विधिक मामलों में नहीं जाता। पुरोधा राजा का परामर्शदाता होता था। जगन्नाथतीर्थ के मन्दिर के सम्बन्ध में एक दोष यह पुरोहित-आगे अवस्थित अथवा पूर्वनियुक्त व्यक्ति, जो बताया जाता है कि उसकी दीवारों पर नृत्य करती हई धर्मकार्यों का संचालक और मंत्रिमण्डल का सदस्य होता युवतियों के चित्र हैं, जो अपने कटाक्षों से हाव-भाव प्रद- था। वैदिक संहिताओं में इसका उल्लेख है। पुरोहित शित करती हई तथा कामक अभिनय करती हई दिखायी को 'पुरोधा' भी कहते हैं । इसका प्राथमिक कार्य किसी गयी हैं। किन्तु ब्रह्मपुराण (अ० ६५) का कथन है कि राजा या संपन्न परिवार का घरेलू पुरोहित होना होता ज्येष्ठ की पूर्णिमा को स्नानपर्व मनाया जाता है । उस था। ऋग्वेद के अनुसार विश्वामित्र एवं बसिष्ठ त्रित्सु अवसर पर सुन्दरी वारविलासिनियाँ तबले और वंशी कुल के राजा सुदास के पुरोहित थे। शान्तनु के पुरोहित की ध्वनि और सुर पर पवित्र वेदमन्त्रों का उच्चारण देवापि थे। यज्ञ क्रिया के सम्पादनार्थ राजा को पुरोहित करती हैं । यह एक सहगान के रूप में श्री कृष्ण, बलराम रखना आवश्यक होता था। यह युद्ध में राजा की सुरक्षा तथा सुभद्रा की मूर्ति के समक्ष होता है । अतः ये चित्र एवं विजय का आश्वासन अपनी स्तुतियों द्वारा देता था, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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