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________________ देवता अर्थात् एक अद्वय आत्मा के ही सब देवता प्रत्यंग रूप हैं । देवताओं के सम्बन्ध में यह भी कहा जाता है कि "तिस्रो देवता" अर्थात् देवता तीन है, ब्रह्मा, विष्णु और महेश । किन्तु ये प्रधान देवता हैं, जो सृष्टि, स्थिति एवं संहार के नियामक हैं । इनके अतिरिक्त और भी देवताओं की कल्पना की गयी है और महाभारत ( शान्तिपर्व ) में इनका वर्णक्रम भी स्पष्ट किया गया है, यथा आदित्या: क्षत्रियास्तेषां विवाश्च मरुतस्तथा । अश्विनौ तु स्मृती शूद्रौ तपस्यु समास्थितौ ।। स्मृतास्त्वङ्गिरसो देवा ब्राह्मणा इति निश्चयः । इत्येतत् सर्वदेवानां चातुर्वर्ण्यं प्रकीर्तितम् ॥ [ आदित्यगण क्षत्रिय देवता, मरुद्गण वैश्य देवता, अश्विन् गण शूद्र देवता तथा आंगिरसगण ब्राह्मण देवता हैं । ] शतपथ ब्राह्मण में भी देवताओं का वर्णक्रम इसी प्रकार माना गया है । देवताओं की संख्या के सम्बन्ध में तेतीस देवता प्रधान कहे गये हैं, क्षेष सभी देवता इनको विभूतिरूप है । इनकी संख्या निर्धारण करते हुए कहा गया है : तिस्रः कोट्यस्तु रुद्राणामादित्यानां दश स्मृताः । अग्नीनां पुत्रपौत्रं तु संख्यातुं नैव शक्यते ॥ [ एकादश रुद्रों की विभूति तीन कोटि देवता हैं, द्वादश आदित्यों की विभूति दस कोटि देवता है। किन्तु अग्निदेव के पुत्र और पौत्रों की तो गणना करना असंभव है] पुनः अक्षपाद ने इन की संख्या ३३ करोड़ तक मानी है। निरुक ( दैवतकाण्ड) के अनुसार देवता तीन हैं: स्थानीय, पृथ्वीस्थानीय एवं आन्तरिक्ष । इनमें अग्नि का स्थान पृथ्वी है, वायु एवं इन्द्र का स्थान अन्तरिक्ष है। सूर्य का स्थान द्युलोक है । इस प्रकार देवताओं की संख्या के सम्बन्ध में मतैक्य नहीं कहा जा सकता, अतः देवता असंख्य हैं । देवता साक्षात् एवं परोक्ष शक्ति के कारण नित्य और नैमित्तिक दो प्रकार के होते हैं। इनमें नित्य देवता वे हैं जिनका पद नित्य एवं स्थायी रूप में माना जाता है, यथा वसु, रुद्र, इन्द्र, आदित्य एवं वरुण ये नित्य देवता हैं । इनके पदसमूह केवल अपने ब्रह्माण्ड में ही नित्य नहीं हैं, अपितु प्रत्येक ब्रह्माण्ड में इन पदों (स्थानों) की नित्य रूप से सत्ता आवश्यक मानी जाती है । ये पद तो नित्य Jain Education International ३२७ होते हैं, पर कल्प मन्वन्तरादि के परिवर्तन के अनन्तर कोई भी विशिष्ट देवता अपने पद से उन्नति कर उससे उच्च स्थान भी प्राप्त कर सकता है । कभी-कभी इन पदाधिकारी देवताओं का पतन भी हो जाता है। महा भारत के अनुसार राजा नहुष ने कठिन तपस्या के प्रभाव से इन्द्रपद प्राप्त कर लिया था, किन्तु इस पद की प्राप्ति के अनन्तर यह अहंकारी हो गया। ऋषियों से अपनी शित्रिका वहन कराते समय वह महर्षि भृगु द्वारा शापित होने पर सर्प हो गया । इनमें नैमित्तिक देवता वे होते हैं, जिनका पद किसी निमित्त विशेष के कारण निर्मित होता है, और उस निमित्त के नष्ट हो जाने पर वह पद जाने पर वह पद (स्थान) भी समाप्त हो जाता है । इस प्रकार ग्रामदेवता, वास्तुदेवता, वनदेवता आदि नैमित्तिक देवकोटि के अन्तर्गत आते हैं । जिस प्रकार गृहदेवता की स्थापना गृहनिर्माण के समय की जाती है, एवं उस गृहदेवता की स्थापना के समय से लेकर जब तक वह गृह बना रहता है, तब तक उस गृहदेवता का पद स्थायी रहता है। गृह नष्ट होने पर उस देवता का स्थान भी नष्ट हो जाता है । इस प्रकार उद्भिज, स्वेदज, अण्डज एवं जरायुज चतुविध जीवों की जिस देश में जिस प्रकार की श्रेणियाँ उत्पन्न होती हैं, उनके रक्षार्थ वैसा ही स्वतन्त्र देवता का पद बनाया जाता है। स्थावर पदार्थों में भी नदी, पर्वत आदि तथा अनेक प्रकार के धातु आदि खनिज पदार्थों के चालक और रक्षक पृथक् देवता होते हैं । इस तरह चौदों भुवनों के विराट् पुरुष की विभूतिरूप होने के कारण इनके अन्तर्गत जितने भी पदार्थ है उन सभी की दैवी शक्तियाँ नियामिका हैं । इस प्रकार नित्य और नैमित्तिक भेदों से देवताओं के अनेक नाम और रूप सिद्ध होते हैं। आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से भी देवता तीन प्रकार के माने जाते हैं, यथा उत्तम, मध्यम और अधम । उत्तम देवताओं में पार्थिव शरीरान्तर्गत अन्नमय, प्राणमय एवं मनोमय कोषों के अधिकारों की पूर्णता के साथ विज्ञानमय एवं आनन्दमय कोषों के अधिकारों की मुख्यता रहती है। इसी प्रकार मध्यम श्रेणी के देवतावर्ग को भी प्रथम तीन ( अन्नमय, प्राणमय तथा मनोमय) कोषों के अधिकार होते हैं परन्तु विज्ञानमय तथा आनन्दमय For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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