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________________ देवताध्याय-देवमुनि कोषों के अधिकारों की गौणता रहती है । अधम श्रेणी के देवदासी-वैभवशाली हिन्दू मन्दिरों में स्त्रियों का नर्तकी देवताओं के अधिकारों की तोव्रता केवल अन्नमय और के रूप में रखा जाना भारत में प्रचलित था, जो देवमूर्ति प्राणमय कोषों में ही रहती है। सत्यलोकस्थ देव रूपस्थ के सामने नाचती गाती थीं। इन्हें देवदासी अथवा ऋषियों को पाँचों कोषों पर पूर्ण अधिकार प्राप्त रहता 'देवरतिआल' कहते थे। मानभाउ संप्रदायी लोगों के अपयश है । वैतालिक क्षुद्र देवता एवं अनेक नैमित्तिक देवता इसी का सच्चा या झूठा कारण एक यह भी बतलाया जाता श्रेणी के समझे जाते हैं। इसी प्रकार प्रेतलोकगत जीव है कि वे छोटी-छोटी लड़कियों को खरीदकर उन्हें भी दैवी शक्तिसम्पन्न होते हैं, परन्तु इनकी दशा अधिक देवदासी बनाते थे। यह प्रथा अब विधि द्वारा निषिद्ध उन्नत नहीं होती। ये केवल एक भूलोक से ही संश्लिष्ट और बन्द है। रहकर अन्नमय, प्राणमय एवं मनोमय कोषों को किञ्चित् देवनक्षत्र-तैत्तिरीय ब्राह्मण (१.५,२, ६७) में देवसंकुचित और विकसित करने में समर्थ होते हैं। ये अल- नक्षत्र चौदह चान्द्र स्थानों को कहते हैं। ये दक्षिण में क्षित रहकर भी प्राणमय कोष की सहायता से अनेक स्थूल है। दूसरे यमनक्षत्र कहलाते हैं, जो उत्तर में हैं। पदार्थों को गिराने तथा उठाने के कार्य करते हैं। यह देवपाल-कृष्ण यजुर्वेदीय काठक गृह्यसूत्र पर इन्होंने एक निश्चित है कि केवल मनुष्यों के समक्ष कुछ दैवी शक्तियाँ वृत्ति लिखी है। रखने के कारण प्रेत देवयोनि में परिगणित होते हैं। देवप्रयाग-यहाँ भागीरथी (गङ्गोत्तरी से आने वाली अन्यथा देवलोकों में इनकी गति नहीं होती है । गङ्गा की धारा ) और अलकनन्दा ( बदरीनाथ से आने वाली गङ्गा की धारा) का संगम है। संगम से ऊपर ध्यान से देखा जाय तो समस्त दैवी जगत् के सम्बन्ध रघुनाथजी, आद्य विश्वेश्वर तथा गङ्गा-यमुना की में अध्यात्म भावना के द्वारा पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया जा मूर्तियाँ हैं। यहाँ गृद्धाचल, नरसिंहाचल तथा दशरथासकता है। ज्ञानी के लिए समस्त सृष्टि देवमय है। चल नामक तीन पर्वत हैं। इसे प्राचीन सुदर्शनक्षेत्र कहते दे० 'देव' । हैं। यात्री यहाँ पितृश्राद्ध, पिण्डदान आदि करते हैं। देवताध्याय-सामवेदीय पाँचवाँ ब्राह्मण 'देवताध्याय' कह- यहाँ से बदरीनाथ को सीधा मार्ग जाता है। लाता है । सायण ने इसका भाष्य लिखा है। इसमें देवता देवबन्द-सहारनपुर जिले में मुजफ्फरनगर से १४ मील सम्बन्धी अध्ययन है। पहले अध्याय में सामवेदीय देव- दूर देवबन्द स्थान है। यहाँ पर दुर्गाजी का मन्दिर है, ताओं का बहुत प्रकार से प्रकीर्तन है। दूसरे अध्याय में समीप ही देवीकुण्ड सरोवर है। चैत्र शुक्ल चतुर्दशी से वर्ण और वर्णदेवताओं का विवरण है। तीसरे अध्याय में आठ दस दिन तक यहाँ मेला लगता है। यहाँ पहले वन इन सबकी निरुक्ति का विचार है। था, जिसे 'देवीवन' कहते थे। उसी से इस नगर का देवताध्याय ब्राह्मण-दे० 'देवताध्याय' । नाम देवबन्द पड़ा। यह एक शक्तितीर्थ है। अब यहाँ देवतापारम्य-आचार्य रामानुज रचित एक ग्रन्थ । इसके । मुस्लिम धर्म और संस्कृति की विशेष शिक्षा देनेवाला रचनाकाल का ठीक ज्ञान नहीं होता, परन्तु रामानुज महाविद्यालय भी स्थापित हो गया है। के जीवनकाल के उत्तरार्द्ध में यह रखा जा सकता है। देवभाग श्रौतर्ष-शतपथ ब्राह्मण ( २.४, ४, ५) में देव भाग श्रौतर्ष को सृञ्जयों एवं कुरुओं का पारिवारिक देवतासरा-बंगाल से लेकर मिर्जापुर (उ० प्र०) तक पुरोहित कहा गया है । ऐतरेय ब्राह्मण (७.१ ) में इन्हें के क्षेत्र में एक जनजाति भुइया या भुइयाँ ( सं० भूमि ) गिरिज बाभ्रव्य को यज्ञीय बलिदान की विधि सिखलाने बसती है। उसके अपने पुरोहित होते हैं, जिन्हें देवरी वाला कहा गया है (-पशोविभक्तिः) तथा तैत्तिरीय कहते हैं तथा पूजास्थल को 'देवतासरा' कहते हैं। इनमें ब्राह्मण में सावित्र अग्नि का अधिकारी विद्वान् बतलाया चार देवताओं की विशेष पूजा होती है। वे हैं-दासुम गया है। पात, बामोनी पात, कोइसर पात तथा बोराम । देवमुनि-पञ्चविंश ब्राह्मण ( २५.१४, ५) में 'देवमुनि' देवत्रात-आश्वलायन श्रौतसूत्र के ग्यारह भाष्यकारों में तुर का एक विरुद है। अनुक्रमणी में ये एक ऋग्वेदीय से देवत्रात भी एक हैं। ऋचा (१०.१४६ ) के रचयिता कहे गये हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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