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________________ ३०६ ध्वंस किया अतः वे 'त्रिपुरारि' कहलाये । स्कन्दपुराण के अवन्तिका और रेवा खण्ड में इसका विस्तृत वर्णन है। शिव अवन्तिका से त्रिपुर पर आक्रमण किया था इसलिए इस विजय के उपलक्ष्य में अवन्तिका का नाम 'उमविनी' (विशेष विजय वाली) पढ़ा। यह नगर आगे चलकर 'त्रिपुरी' भी कहलाया । इसका अवशेष जबलपुर से ६-७ मील पश्चिम तेवर गांव और आसन्यास के दूहाँ के रूप में पड़ा हुआ है। त्रिपुरसुन्दरी - यह जगदम्बा महाशक्ति का एक रूप है । त्रिपुरसूदन व्रत -- तीनों उत्तरा नक्षत्र युक्त रविवार को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। प्रतिमा को घृत, दुग्ध, गन्ने के रस में स्नान कराकर तत्पश्चात् केसर से उद्वर्तन तथा बाद में पूजन करना चाहिए । त्रिपुरा-यह देवी का नाम है, जो भूः भुवः स्वः लोकों अथवा पृथ्वी, पाताल, स्वर्ग की स्वामिनी हैं। तन्त्रशास्त्र में त्रिपुरा का बड़ा महत्व वर्णित है। बंगाल के पूर्व में स्थित एक प्रदेश का भी यह नाम है, जो महामाया त्रिपुरा की आराधना का पुराना केन्द्र था। जबलपुर के पास स्थित प्राचीन त्रिपुरी भी पहले शक्ति उपासना का क्षेत्र था। लगता है कि इसके नष्ट होने पर यह पीठ स्थानान्तरित होकर (नये राजवंश के साथ) वंग देश के पार्वत्य और जाङ्गल प्रदेश में चला गया और इस प्रदेश को अपना उपर्युक्त नाम दिया। त्रिपुरा उपनिषद् - यह शाक्त उपनिषद् है जिसकी रचना सं० ९५७-१४१७ के मध्य किसी समय मानी जाती है । इसमें १६ प है तथा इसका सम्बन्ध ऋग्वेद की शाकल शाखा से जोड़ा जाता है। यह शाक्त मत के दार्शनिक आधार का संक्षिप्त वर्णन उपस्थित करती है । साथ ही यह अनेक प्रकार की व्यवहृत पूजा का भी वर्णन करती है। 'अथर्वशिरम् उपनिषद्' के अन्तर्गत पांच उपनिषदों में से यह एक है । त्रिपुरातन्त्र' आगमतस्वविलास' में उद्धृत ६४ तन्त्रों की तालिका में १४वाँ तन्त्र त्रिपुरातन्त्र है । त्रिपुरातापनीय उपनिषद् - शाक्त उपनिषदों में से एक प्रमुख यह 'नृसिंहतापनीय' की प्रणाली पर प्रस्तुत हुई है और 'अथर्वशिरस्' वर्ग की पाँच उपनिषदों के अन्तर्गत है । रचनाकाल 'त्रिपुरा उपनिषद्' के आस-पास है । Jain Education International त्रिपुरसुन्दरी - त्रियुग त्रिपुरोत्सव - इस व्रत के अनुष्ठान में कार्तिकी पूर्णिमा को सान्ध्य काल में शिवजी के मन्दिर में दीप प्रज्वलित करना चाहिए । त्रिभाष्य-संत्तिरीय प्रातिशास्य पर आत्रेय मारिषेत्र और वररुचि के लिखे भाष्य थे, परन्तु वे अब नहीं मिलते । इन पुराने भाष्यों को देखकर कार्तिकेय ने 'त्रिभाष्य' नाम का एक विस्तृत ग्रन्थ रचा है । त्रिमधुर-मधु, वृत तथा शर्करा को त्रिमधुर कहा जाता है। धार्मिक क्रियाओं में इसका नैवेद्य रूप में प्रचुर उपयोग होता है । त्रिमूर्ति - मैत्रायणी उपनिषद् में त्रिमूर्ति का सिद्धान्त सर्वप्रथम दो अध्यायों में वर्णित है । एक ही सर्वश्रेष्ठ सत्ता के तीन रूप हैं-ह्मा, विष्णु एवं शिव उपर्युक्त उपनिषद् के पहले परिच्छेद (४.५-६ ) में केवल इतना ही कहा गया है कि तीनों देव निराकार सत्ता के सर्वश्रेष्ठ रूप हैं। दूसरे में (५.२ ) इनके दार्शनिक पक्ष का यह वर्णन है कि ये प्रकृति के अदृश्य आधार सत्त्व, रजस् एवं तमस् हैं। एक ही सत्ता तीन देवों के रूप में निरूपित है— विष्णु सत्त्व हैं, ब्रह्मा रजस् हैं तथा शिव तमस् हैं। त्रिमूर्ति सिद्धान्त का यह वास्तविक रूप है, किन्तु प्रत्येक सम्प्रदाय अपने देवता को ही सर्वश्रेष्ठ मानता है । अतएव प्रत्येक सम्प्रदाय में त्रिमूर्ति के विभिन्न रूप हैं । वैष्णवों में विष्णु ही ब्रह्म हैं तथा ब्रह्मा और शिव उनके आश्रित देव हैं। उसी प्रकार शैवों में शिव ब्रह्मस्वरूप हैं तथा विष्णु और ब्रह्मा उनके आश्रित है। यही भाव गाणपत्य एवं शातों में भी है। निम्बार्क, वल्लभ तथा दूसरे वैष्णव मतावलम्बी कृष्ण को विष्णु से भिन्न एवं ब्रह्म का रूप मानते हैं । साहित्य, मूर्तिशिल्प एवं चित्रकला में त्रिमूर्ति के रूपों का विविध और विस्तृत चित्रण हुआ है । त्रिमूतिव्रत ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। यह तिथिव्रत है। तीन वर्ष पर्यन्त यह चलता हैं। इसमें विष्णु भगवान् की वायु सूर्य तथा चन्द्रमा तीन दैवत मूर्तियों के रूप में पूजा होती है। - त्रियुग - ऋग्वेद (१०.९७, १ ), तैत्तिरीय सं० (४.२,६,१ ) तथा वाजसनेयी सं० ( १२.७५ ) में इस शब्द का अर्थ लता - ओषधि वनस्पतियों की क्रमिक उत्पत्ति का वह युग है, जब देवताओं की भी सृष्टि नहीं हुई थी (देवेभ्यस् त्रियुगम् पुरा ) निरुक्त के भाष्यकार (९.२८) का मत है For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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