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________________ त्रित त्रिपुर तमिल नाम 'तिरुचिरापल्ली' है, संस्कृत नाम 'त्रिशिरःपल्ली' है ऐसी जनश्रुति है कि रावण के भाई त्रिशिरा नामक राक्षस ने इसे बसाया था । उसके विनाश के बाद यह वैष्णवतीर्थ के रूप में विकसित हुई । त्रित वैदिक साहित्य में स्पष्टतः यह एक देवता का नाम है । किन्तु निरुक्त (४.६ ) के एक परिच्छेद में यास्क ने त्रित को ऋषि का नाम बताया है । त्रित आट्य --- अपान्नपात्, त्रित आप्त्य, मातरिश्वा, अहिधन्य एवं अज एकपाद को इन्द्र एवं रुद्र के काल्पनिक पर्याय कहते हैं, जो आकाशीय विद्युत् के रूप में वर्णित हैं । 'अपांनपात्' एवं 'त्रित आप्त्य' का प्रारम्भ इण्डो-ईरानियन काल से पाया जाता है। इन दोनों एवं मातरिश्वा को कहीं-कहीं अग्नि (विशेष कर इसके आकाशीय रूप में) माना गया है । ऋग्वेद में कोई पूरा सूक्त 'त्रित आप्त्य' को समर्पित नहीं है, किन्तु अन्य देवतापरक कई सूक्तों में इसका उल्लेख पाया जाता है । इन्द्र, अग्नि, मरुत् और सोम के साथ प्रायः इसका वर्णन मिलता है। वृत्र के ऊपर इसके आक्र मण और आघात के कई सन्दर्भ पाये जाते हैं । इसकी 'आप्त्य' उपाधि से लगता है कि इसकी उत्पत्ति 'अप्' (जल) से हुई । सायण ने इसको जल का पुत्र कहा है । इसके सम्पूर्ण वर्णन से अनुमान किया जा सकता है कि त्रित (आय) विद्युत् का देवता है। तीन प्रकार की अग्नि- पार्थिव अग्नि, अन्तरिक्ष की अग्नि (विद्युत् ) इन्द्र अथवा वायु और व्योम की अग्नि (सूर्य) में से यह अन्तरिक्ष की अग्नि है। धीरे-धीरे इन्द्र ने इसकी शक्ति को आत्मसात् कर लिया और देवताओं में इसका स्थान बहुत नगण्य हो गया। सायण ने त्रित आप्त्य की उत्पत्ति की प्रकार कही है अग्नि ने ताहति के अवशेष को साफ करने के लिए आहुति की एक चिनगारी जल में फेंक दी । उससे एकत द्वित और त्रित तीन पुरुष उत्पन्न हो गये। क्योंकि वे 'अप्' से उत्पन्न हुए थे अतः 'आपत्य' कहलाये । एक दिन त्रित कूप से पानी लेने गया और उसमें गिर गया। असुरों ने कूप के मुँह पर भारी ढक्कन रख दिया, किन्तु त्रित उसको आसानी से तोड़कर निकल आया । 'नीतिमञ्जरी' में यह कथा भिन्न प्रकार से कही गयी है। एक बार त्रित आदि तीनों भाई जब यात्रा कर रहे थे तो उनको प्यास लगी। वे एक कूप के पास ३९ कथा : Jain Education International ३०५ पहुँचे । त्रित ने कूप से जल निकाल कर अपने भाइयों को पिलाया । भाइयों के मन में लोभ आया । त्रित की सम्पत्ति हड़प लेने के विचार से उसको कूप में ढकेल कर उसके मुँह पर गाड़ी का चक्का रख दिया । त्रित ने अति भक्तिभाव से देवताओं की प्रार्थना की और उनकी कृपा से वह बाहर निकल आया । त्रिपप्रदानसप्तमी - हस्त नक्षत्रयुक्त माघ शुक्ल सप्तमी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है । यह (तिथिव्रत कृत्यकल्पतरु द्वारा स्वीकृत तथा मासव्रत हेमाद्रि द्वारा स्वीकृत है ।) एक वर्ष पर्यन्त चलता है । इसके सूर्य देवता हैं । व्रती को प्रत्येक मास पुत, पान, यव, सुबर्ण और आठ अन्य वस्तुएँ क्रमशः दान में देनी चाहिए तथा एक धान्य ( मिश्र - मन प्रकार का ) और प्रत्येक मास क्रमशः गोमूत्र, जल तथा दस पृथक्-पृथक् वस्तुएँ ग्रहण करनी चाहिए। इससे तीन वस्तुएँ प्राप्त होती हैं समृद्ध कुल में जन्म, सुस्वास्थ्य तथा धन । हेमाद्रि ने 'नयनप्रद सप्तमी' के नाम से इसे सम्बोधित किया है। त्रिदण्डी - श्रीवैष्णव संन्यासी शङ्कर के दसनामी संन्यासियों से भिन्न हैं । इनके सम्प्रदाय में केवल ब्राह्मण ही ग्रहण किये जाते हैं जो त्रिदण्ड धारण करते हैं। दसनामी संन्यासी एकदण्डधारी होते हैं। दोनों वर्गों का क्रमशः त्रिदण्डी' एवं 'एकदण्डी' कहकर भेद किया गया है। त्रिपादविभूतिमहानारायण उपनिषद् - यह परवर्ती उपनिषद है। त्रिपुण्ड्र - शैव सम्प्रदाय का धार्मिक चिह्न, जो भौंहों के समानान्तर ललाट के एक सिरे से दूसरे तक भस्म की तीन रेखाओं से अंकित होता है। त्रिपुण्ड्र का चिह्न छाती, भुजाओं एवं शरीर के अन्य भागों पर भी अंकित किया जाता है। 'कालाग्निरुद्र उप०' में त्रिपुण्ड्र पर ध्यान केन्द्रित करने की रहस्यमय क्रिया का वर्णन है । यह सांकेतिक चिह्न शाक्तों द्वारा भी अपनाया गया है। यह शिव एवं शक्ति के एकस्व ( सामुज्य) का निर्देशक है। त्रिपुर- ब्राह्मण ग्रन्थों में त्रिपुर का प्रयोग एक विश्वसनीय सुरक्षा के अर्थ में किया गया है। किन्तु यह प्रसंग क्लिष्ट कल्पना है। तीन दीवारों से घिरे हुए दुर्ग के अर्थ में इसको ग्रहण करना भी सन्दिग्ध ही है। परवर्ती साहित्य में त्रिपुर बाणासुर की राजधानी थी जो स्वर्ण, रौप्य और लौह की बनी थी। शिव ने इसका For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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