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________________ २७२ - छागमुख- स्वामी कार्तिकेय का एक पर्याय । छागरथ ( छागवाहन ) अग्नि का पर्याय । अग्नि की मूर्तियों के अजून में छाग (बकरी या भेड़ उनका वाहन दिखाया छाहसा यज्ञ में जो छागवलि होती थी उसको छागहिंसा कहते थे । वैष्णव प्रभाव के कारण छागहिंसा कैसे बन्द हुई इस सम्बन्ध में महाभारत और पुरारों में कई कथाएँ पायी जाती हैं । पाञ्चरात्र मत का प्रथम अनुयायी राजा वसु था । उसने जो यज्ञ किया उसमें पशुवध नहीं हुआ । ऋषियों ने देवों को अप्रसन्न जानकर छागहिंसा के सम्बन्ध में जब वसु से प्रश्न किया, तब उसने देवों के अनुकूल ही कहा कि छागबलि देनी चाहिए । इससे ऋषियों ने उसे शाप दिया और वह भूविवर में घुस गया। वहां उसने अनन्य भक्ति पूर्वक नारायण की सेवा की, जिससे वह मुक्त हुआ ओर नारायण की कृपा से ब्रह्मलोक को पहुँचा । छान्दोग्य दे० 'छन्दोग' | छान्दोग्योपनिषद् — सामवेदीय उपनिषद् ग्रन्थों में छान्दोग्यो पनिषद् और केनोपनिषद् प्रसिद्ध हैं । छान्दोग्य में आठ अध्याय हैं छान्दोग्य ब्राह्मण का यह एक विशेषांश है। उसमें दस अध्याय हैं, परन्तु पहले दो अध्यायों में ब्राह्मणोपयुक्त विषयों पर विचार है। शेष आठ अध्याय उपनिषद् के हैं । छान्दोग्य ब्राह्मण के पहले अध्याय में आठ सूक्त आये हैं। ये सब सूक्त जन्म और विवाह की मंगलप्रार्थना के लिए हैं । यह उपनिषद् ब्रह्मतत्त्व के सम्बन्ध में सर्वप्रधान समझी जाती है। साथ ही यह छः प्राचीन उपनिषदों में से एक है । छान्दोग्योपनिषद्दीपिका यह माधवाचार्य द्वारा विरचित छान्दोग्योपनिषद् की शाङ्करभाष्यानुसारिणी टीका है । छान्दोग्यब्राह्मण सामवेदीय ताण्डय शाखा के तीन ब्राह्मण ग्रन्थ हैं - 'पञ्चविंश', 'षड्विंश' एवं 'छान्दोग्य' । छान्दोग्य ब्राह्मण में गृह्य यज्ञकर्मों के प्रायः सभी मन्त्र संगृहीत हैं। इसे उपनिषद्, संहितोपनिषद्, ब्राह्मण अथवा छान्दोग्य ब्राह्मण भी कहते हैं। इसमें सामवेद पढ़ने वालों की रुचि उत्पादन के लिए सम्प्रदायप्रवर्तक ऋषियों की कथा लिखी गयी है। इस ब्राह्मण के आठवें से लेकर दसवें प्रपाठक तक के अंश का नाम 'छान्दोग्योपनिषद्' प्रसिद्ध है । इसे 'मन्त्रब्राह्मण' भी कहते हैं । --- Jain Education International छागमुख-जगत् छान्दोग्यसूत्रदीप 'ब्राह्मायण' अथवा 'वसिष्ठसूत्र' (सामवेद के तीसरे श्रौतसूत्र ) की 'छान्दोग्यसूत्रदीप' नामक वृत्ति या टीका पायी जाती है, जिसके लेखक धन्वी नामक विद्वान् थे । छिन्नमस्तकगणपति- उत्तराखण्ड में जहाँ सोम नदी मन्दाकिनी में मिलती है, वहाँ से पुल पार एक मील पर छि मस्तक गणपति का मन्दिर है। यात्री इनके दर्शन के लिए आते रहते हैं । यह गणपति का वह रूप है जिसमें उनका सिर कटा हुआ दिखाया जाता है। इसकी कथा पुराणों में मिलती है। पार्वती ने अपने देहांश से गणपति का निर्माण किया था। एक बार पार्वती स्नानगृह में थीं, जिसकी रखवाली गणपति कर रहे थे। उसी बीच में शङ्करजी आये । गणपति ने उनको गृहप्रवेश करने से रोका । शङ्कर ने क्रुद्ध होकर गणपति का सिर काट दिया, जिससे वे छिन्नमस्तक हो गये । ज जगजीवनदास-सं० १८०७ वि० के लगभग जगजीवनदास ने सतनामी (सत्यनामी) पंथ का पुनरुद्धार किया। ये बाराबंकी जिले के कोटवा नामक स्थान के रहने वाले योगाभ्यासी एवं कवि थे । इनकी शिक्षाएँ इनके रचे हिन्दी पचों में प्राप्त हैं। इनके एक शिष्य टूलनदासजी भी कवि थे । जगत्- पुरुषसूक्त के प्रथम मन्त्र के अनुसार पुरुष इस सब जगत् में व्याप्त हो रहा है अर्थात् उसने अपनी व्यापकता से इस जगत् को पूर्ण कर रखा है । पुरुषसूक्त के ही १७वें मन्त्र के अनुसार जब जगत् उत्पन्न नहीं हुआ था तब ईश्वर की सामर्थ्य में यह कारण रूप से वर्तमान था । ईश्वर की इच्छानुसार उससे यह उत्पन्न होकर स्थूल नामरूपों में दिखाई पड़ता है । आचार्य शंकर के अनुसार परमार्थतः जगत् माविक और मिथ्या है । परन्तु इसकी व्यावहारिक सत्ता है । जब तक मनुष्य संसार में लिप्त है तब तक संसार की सत्ता है । जब मोह नष्ट हो जाता है तब संसार भी नष्ट हो जाता है । आचार्य रामानुज ने ब्रह्म और जगत् का सम्बन्ध बताते हुए कहा है कि जड़ जगत् ब्रह्म का शरीर है । ब्रह्म For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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