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________________ २६६ चित्रभानुपदद्वयव्रत-चिदम्बरम् घृतधारा से सूर्य का पूजन होता है । इससे अच्छे स्वास्थ्य में श्रीहर्ष ने न्यायमत का खण्डन किया था। तेरहवीं की उपलब्धि होती है। शताब्दी के आरम्भ में गङ्गेश ने श्रीहर्ष के मत को खंडित चित्रभानुपदद्वयव्रत-उत्तरायण के प्रारम्भ से अन्त तक इस कर न्यायशास्त्र को पुनः प्रतिष्ठित किया। दूसरी ओर का अनुष्ठान होता है । यह अयन व्रत है। इसमें सूर्य की द्वैतवादी वैष्णव आचार्य भी अद्वैत मत का खण्डन कर रहे पूजा होती है। थे। ऐसे समय में चित्सुखाचार्य ने अद्वैतमत का समर्थन चित्रमीमांसा-अप्पय दीक्षितकृत अलङ्कार शास्त्र-विषयक और न्याय आदि मतों का खण्डन करके शाङ्कर मत की ग्रन्थ । इसमें अर्थचित्र का विचार किया गया है । इसका रक्षा की। उन्होंने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए 'तत्त्व प्रदीपिका', 'न्यायमकरन्द' की टीका और 'खण्डनखण्डखण्डन करने के लिए पण्डितराज जगन्नाथ ने 'चित्रमीमांसा खाद्य' की टीका लिखी । अपनी प्रतिभा के कारण चित्सुखण्डन' नामक ग्रन्थ की रचना की की। चित्रमीमांसाखण्डन-पण्डितराज जगन्नाथकृत यह ग्रन्थ अप्पय खाचार्य ने थोड़े ही समय में बहुत प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली। दीक्षित कृत 'चित्रमीमांसा' नामक अलङ्कार शास्त्र विष चित्सुख भी अद्वैतवाद के स्तम्भ माने जाते हैं। परवर्ती आचार्यों ने उनके वाक्यों को प्रमाण के रूप में उद्धृत यक ग्रन्थ के खण्डनार्थ लिखा गया है। किया है। चित्रशिखण्डी ऋषि-सप्त ऋषियों का सामूहिक नाम। पाञ्च चित्सुखो-चित्सुखाचार्य द्वारा रचित 'तत्त्वप्रदीपिका' का रात्र शास्त्र सात चित्रशिखण्डी ऋषियों द्वारा सङ्कलित है, जो संहिताओं का पूर्ववर्ती एवं उनका पथप्रदर्शक है । इन दूसरा नाम 'चित्सुखी' है । यह अद्वैत वेदान्त का समर्थक, ऋषियों ने वेदों का निष्कर्ष निकालकर पाञ्चरात्र नाम का . उच्चकोटि का दार्शनिक ग्रन्थ है। शास्त्र तैयार किया। ये सप्तर्षि स्वायम्भुव मन्वन्तर के चिता-मृतक के दाहसंस्कार के लिए जोड़ी हई लकड़ियों मरीचि, अङ्गिरा, अत्रि, पलस्त्य, पलह, क्रतु और वसिष्ठ हैं। का समूह । गृह्यसूत्रों में चिताकर्म का पूरा विवरण पाया इस शास्त्र में धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष चारों पुरुषार्थों का जाता है । विवेचन है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अङ्गिरा चिदचिदीश्वरतत्त्वनिरूपण-विशिष्टाद्वैत सम्प्रदाय का दार्शऋषि के अथर्ववेद के आधार पर इस ग्रन्थ में प्रवृत्ति और निक ग्रन्थ । वरदनायक सुरिकृत (१६वीं शताब्दी का) यह निवृत्ति मार्गों की चर्चा है। दोनों मार्गों का यह आधारस्तम्भ ग्रन्थ जीव, जगत् और ईश्वर के सम्बन्ध में विचार उपहै । नारायण का कथन है-"हरिभक्त वसुराज उपरिचर स्थित करता है। इस ग्रन्थ को बृहस्पति से सीखेगा और उसके अनुसार चिदम्बरम यह सुदूर दक्षिण भारत का अति प्रसिद्ध चलेगा, परन्तु इसके पश्चात् यह ग्रन्थ नष्ट हो जायगा।" शैव तीर्थ है। यह मद्रास-धनुषकोटि मार्ग में बिल्लुपुरम् से चित्रशिखण्डी ऋषियों का . यह ग्रन्थ आजकल उपलब्ध ५० मील दूर अवस्थित है। सुप्रसिद्ध 'नटराज शिव' यहीं नहीं है। विराजमान हैं। शङ्करजी के पञ्चतत्त्व लिङ्गों में से आकाशचित्सुखाचार्य-आचार्य चित्सुख का प्रादुर्भाव तेरहवीं शताब्दी लिङ चिदम्बरम में ही माना जाता है । मन्दिर का घेरा में हुआ था । उन्होंने 'तत्त्वप्रदीपिका' नामक वेदान्त ग्रन्थ १०० बीघे का है। पहले घेरे के पश्चात् दूसरे घेरे में में न्यायलीलावतीकार वल्लभाचार्य के मत का खण्डन उत्तुङ्ग गोपुर है, जो नौ मंजिल का है, उस पर नाट्यशास्त्र किया है, जो बारहवीं शताब्दी में हुए थे । उस खण्डन में के अनुसार विभिन्न नृत्यमुद्राओं की मूर्तियाँ बनी हैं । मन्दिर उन्होंने श्रीहर्ष के मत को उद्धृत किया है, जो इस में नृत्य करते हुए भगवान् शङ्कर की बहुत सुन्दर स्वर्णमूर्ति शताब्दी के अन्त में हुए थे। उनके जन्मस्थान आदि के है। इसके सम्मुख सभामण्डप है। कई प्रकोष्ठों के भीतर बारे में कोई उल्लेख नहीं मिलता। उन्होंने 'तत्त्वप्रदीपिका' भगवान् शङ्कर की लिङ्गमय मूर्ति है । यही चिदम्बरम का के मङ्गलाचरण में अपने गुरु का नाम ज्ञानोत्तम लिखा है। मल विग्रह है। महर्षि व्याघ्रपाद तथा पतञ्जलि ने इसी जिन दिनों इनका आविर्भाव हुआ था, उन दिनों न्याय- मति की अर्चा की थी, जिससे प्रसन्न होकर भगवान् शङ्कर मत (तर्कशास्त्र) का जोर बढ़ रहा था। द्वादश शताब्दी ने ताण्डवनृत्य किया। उसी नृत्य के स्मारक रूप में नद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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