SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 264
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५० गोवत्सद्वादशी-गोविन्द यद्रूपं गोलकं धाम तद्रपं नास्ति मामके । ज्ञाने वा चक्षुषो किंवा ध्यानयोगे न विद्यते ॥ शद्धतत्त्वमयं देवि नाना देवेन शोभितम् । मध्यदेशे गोलोकाख्यं श्रीविष्णोर्लोभमन्दिरम् ॥ श्रीविष्णोः सत्वरूपस्य यत् स्थलं चित्तमोहनम् । तस्य स्थानस्य माहात्म्यं किं मया कथ्यतेऽधुना ।। आदि ब्रह्मवैवर्तपुराण ( ब्रह्मखण्ड, २८ अध्याय ) में भी गोलोक का विस्तृत वर्णन है । गोवत्सद्वादशी-कार्तिक कृष्ण द्वादशी से आरम्भ कर एक वर्ष पर्यन्त इस व्रत का आचरण करना चाहिए। इसके हरि देवता हैं । प्रत्येक मास में भिन्न भिन्न नामों से हरि का पूजन करना चाहिए । इससे पुत्र की प्राप्ति होती है । दे० हेमाद्रि, १.१०८३-१०८४ । गोवर्धन-व्रजमण्डल के एक पर्वत का नाम । जैसा इसके नाम से ही प्रकट है, इससे वज ( चरागाह ) में गायों का विशेष रूप से वर्धन (वृद्धि) होता था। भागवत की कथा के अनुसार भगवान् कृष्ण ने इन्द्रपूजा के स्थान पर गोवर्धनपूजा का प्रचार किया। इससे क्रुद्ध होकर इन्द्र ने अतिवृष्टि के साथ व्रज पर आक्रमण किया और ऐसा लगा कि व्रज जलप्रलय से नष्ट हो जायेगा । भगवान् कृष्ण ने व्रज की रक्षा के लिए गोवर्धन को एक अंगुली पर उठाकर इन्द्र द्वारा किये गये अतिवर्षण के प्रभाव को रोक दिया। तब से कृष्ण का विरुद गोवर्धनधारी हो गया और गोवर्धन की पूजा होने लगी। यह पर्वत मथुरा से सोलह मील और बरसाने से चौदह मील दूर है, जो एक छोटी पहाड़ी के रूप में है । लम्बाई लगभग चार मील है, ऊँचाई थोड़ी ही है, कहीं कहीं तो भूमि के बराबर है । पर्वत की पूरी परिक्रमा चौदह मील की है। एक स्थान पर १०८ बार दण्डवत् प्रणाम करके तब आगे बढ़ना और इसी क्रम से लगभग तीन वर्ष में इस पर्वत की परिक्रमा पूरी करना बहुत बड़ा तप माना जाता है । गोवर्धन बस्ती प्रायः मध्य में है। पद्मपुराण के पातालखण्ड में गोवर्धन का स्वरूप इस प्रकार बतलाया गयाँ है: अनादिर्हरिदासोऽयं भधरो नात्र संशयः । [इसमें सन्देह नहीं कि यह पर्वत अनादि और भगवान् का दास है।] गोवर्धपूनजा-पद्मपुराण (पाताल खण्ड ) और हरिवंश (२.१७ ) में गोवर्धनपूजा का विस्तारसे वर्णन पाया जाता है : प्रातर्गोवर्द्धनं पूज्य रात्री जागरणं चरेत् । भूषणीयास्तथा गावः पूज्याश्च दोहवाहनाः ।। श्रीकृष्णदासवर्योऽयं श्रीगोवर्द्धनभूधरः । शुक्लप्रतिपदि प्रातः कार्तिकेऽर्योऽत्र वैष्णनैः ॥ पूजन विधि निम्नांकित है : मथरायां तथान्यत्र कृत्वा गोवर्द्धनं गिरिम् । गोमयेन महास्थूलं तत्र पूज्यो गिरिर्यथा ॥ मथुरायां तथा साक्षात् कृत्वा चैव प्रदक्षिणम । गैष्णनं धाम सम्प्राप्य मोदते हरिसन्निधौ ॥ गोवर्धन पूजा का मन्त्र इस प्रकार है : गोवर्द्धन धराधार गोकुलत्राणकारक । विष्णुबाहुकृतोच्छायो गवां कोटिप्रदो भव ।। कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को अन्नकूट एवं गोवर्धनपूजा होती है। गोबर का विशाल मानवाकार गोवर्धन बनाकर ध्वजा-पताकाओं से सजाया जाता है । गाय-बैल रंग, तेल, मोर पंख आदि से अलंकृत किये जाते हैं। सबकी पूजा होती है। घरों में और देवालयों में छप्पन प्रकार के व्यञ्जन बनते हैं और भगवान् को भोग लगता है । यह त्योहार भारतव्यापी है. परन्तु मथुरा-वृन्दावन में यह विशेष रूप से मनाया जाता है। गोवर्धनमठ-शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार मठों में जगन्नाथपुरीस्थित मठ। इन मठों को आचार्य ने अद्वैत-विद्याध्ययन एवं उसके प्रभाव के प्रसार के लिए स्थापित किया था। शङ्कर के प्रमुख चार शिष्यों में से एक आचार्य पद्मपाद इस मठ के प्रथम अध्यक्ष थे। सम्भवतः १४०० ई० में यहाँ के महन्त श्रीधर स्वामी ने भागवत पुराण की टीका लिखी। गोविन्द-श्री कृष्ण का एक नाम । भगवद्गीता। (१.३२) में अर्जुन ने कृष्ण का संबोधन किया है : 'किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगर्जीवितेन वा।' इसकी शाब्दिक व्युत्पत्ति इस प्रकार है : 'गां धेनुं पथिवीं वा विन्दति प्राप्नोति वा' ( जो गाय अथवा पृथ्वी को प्राप्त करता है )। किन्तु विष्णुतिलक नामक ग्रन्थ में दूसरी ही व्युत्पत्ति पायी जाती है : गोभिरेव यतो वेद्यो गोविन्दः समुदाहृतः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy