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________________ कर्ममहिमा (विश्वव्यापिनी) १५७ तथा तामसिक कर्म के तारतम्य से अधः सप्त लोकों की प्राप्ति होती है। ऊर्ध्वलोक में आनन्द तथा अधोलोक में दुःख भोग का विधान है । धर्म से पुण्य और अधर्म से पाप होता है । सोमरस पान करने वाला यज्ञकर्मी पुण्यात्मा है। वह इन्द्रलोक में जाकर देवभोग्य दिव्य वस्तुओं को प्राप्त करने का अधिकारी होता है। __ इसी प्रकार अधर्म के क्रमानुसार अधोलोक में निम्न और निम्नतर योनियों की प्राप्ति हुआ करती है । छान्दोग्योपनिषद् के अनुसार पुण्य कर्म के अनुष्ठान से ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य आदि उत्तम योनियों की प्राप्ति होती है तथा निम्न या पाप कर्म के अनुष्ठान से कुक्कुर, सूकर और चाण्डाल आदि योनियों की प्राप्ति होती है। स्वर्ण चुरानेवाले, मदिरा सेवन करनेवाले, गुरुपत्नीगामी तथा ब्रह्मघाती एवं इनके साथ सम्बन्ध रखनेवाले सभी अधोगामी होते हैं। योगदर्शन के अनुसार कर्म ही सम्पूर्ण अविद्या और अस्मिता रूपी क्लेशों का मूल कारण है। कर्मसंस्कार ही जन्म और मरण-रूप चक्र में जीव के परि- भ्रमण का कारण है। उसके पाप-पुण्य का फल भी इसी चक्र में भोगने को मिल जाता है । महाभारत के अनुसार कर्मसंस्कार प्रत्येक अवस्था में जीव के साथ रहता है। जीव पूर्व जन्म में जैसा कर्म करता है पर जन्म में वैसा ही फल भोगता है। अपने प्रारब्ध कर्म का भोग उसे मातृगर्भ से ही मिलना आरम्भ हो जाता है। जीवन की तीन अवस्थाओं-बाल, युवा और वृद्ध में से जिस अवस्था में जैसा कर्म किया जाता है उसी अवस्था में उसका फल भी भोगने को मिलता है। जिस शरीर को धारण कर जीव कर्म करता है उसका फल भी उसी काया से प्राप्त होता है। इस तरह प्रारब्ध कर्म सदा कर्ता का अनुगामी होता है। ___ योगदर्शन के अनुसार कर्म के मूल में जाति, आयु और भोग तीनों निहित रहते हैं। कर्म के अनुसार उच्चवर्ग या निम्नवर्ग में जीव का जन्म होता है। प्रारब्ध कर्म आयु का भी निर्धारक है। अर्थात् जिस शरीर में जिस प्राक्तन कर्म के भोग का जितने दिन तक विधान होगा वह शरीर उतने ही दिन तक स्थित रह सकता है। तदु- परान्त दूसरे नबीन कर्म की भोगस्थिति दूसरे शरीर में होती है। कर्म के भोग पक्ष का भी वही विधान है। संसार में सुख और दुःख भी कर्म के अनुसार ही होते हैं। शरीर के अंगों का निर्माण भी पूर्व कर्म के अनुसार होता है। शरीर को रचना और गुण का तारतम्य भी प्राक्तन कर्म का परिणाम है। उसमें दोष और गुण का संचार धर्माधर्म रूपी कर्म का संस्कार है। वेदों में कर्म की महिमा का सबसे अधिक वर्णन है । वेद के इस प्रकरण को कर्मकाण्ड कहते हैं। वहाँ तीन प्रकार के कर्मों का विधान है-नित्य, नैमित्तिक और काम्य । नित्य कर्म करने से कोई विशेष फल तो नहीं मिलता पर न करने से पाप अवश्य होता है । जैसे त्रिकालसन्ध्या और पाँच महायज्ञादि हैं। पूर्व कर्म के अनुसार वर्तमान समय में मनुष्य प्रकृति की जिस कक्षा पर चल रहा है उसी पर पुनः बने रहने के लिए नित्य कर्म अत्यावश्यक है। ऐसा न करने से मनुष्य अपनी वर्तमान कक्षा से च्युत हो जाता है । जैसे पञ्च महायज्ञ आत्मोन्नति के एक साधन हैं, इनकी उपयोगिता पञ्च-सूना दोष दूर करने के लिए ही है। संसार में जीने के लिए मनुष्य प्रकृतिप्रवाह को आघात पहुँचाता है। उसे अपने जीवनयापन के लिए नित्य सहस्रों प्राणियों की हत्या करनी पड़ती है। मनुष्य के श्वास-प्रश्वास तक से असंख्य प्राणियों की हत्या होती है। इस पाप को दूर करने के लिए भारतीय शास्त्रों में पञ्च महायज्ञों की व्यवस्था की गयी है । मनु के अनुसार सामान्य गृहस्थ से भी कम से कम पाँच स्थलों पर जीवहत्या होती है-चूल्हा, पेषणी ( चक्की ), उपस्कर ( सफाई ), कण्डनी ( ऊखल ) और उदकुम्भ (जलघड़ा) । इन पाँच चीजों का उपयोग जीवहिंसा का कारण होता है। इन नित्यहिंसाजनित पापों से मुक्ति पाने के लिए मनुष्य को पञ्चमहायज्ञ रूपी नित्यकर्म करना आवश्यक है। ___ यही कारण है कि नित्यकर्म करने से पुण्य नहीं होता, पर न करने से पाप अवश्य होता है। वर्णाश्रम धर्म के अनुसार निर्धारित कर्म भी इस व्यवस्था के अन्तर्गत हैं। सभी जातियों की कर्मवृत्तियाँ उनके नित्यकर्म के अन्तर्गत आती है। जब तक मनुष्य अपने वर्ण और आश्रम धर्म के अनुसार कार्य न करेगा तब तक अपनी वर्तमान जाति में नहीं रह सकेगा । वह उच्चवर्ग को तो नहीं ही प्राप्त कर सकेगा; अपितु वर्तमान वर्ग से भी च्युत होकर अधोगामी हो जायगा। ब्राह्मण का स्वाध्याय तथा वैश्यों के गोरक्षा आदि उनके नित्यकर्म हैं। इनके न करने से उन्हें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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