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________________ १५६ कर्मधारा-कर्ममहिमा (विश्वव्यापिनी) हैं । लोक-हितकारी दृष्ट फल वाले कर्मों को पूर्त कहते कहते है। दूसरा मार्ग कर्ममार्ग है। हिन्दुत्व में सबसे हैं । इस प्रकार कर्मकाण्ड के अन्तर्गत लोक-परलोक-हित- प्राचीन पवित्र धारणा कर्तव्यों के पालन की है जिसका कारी सभी कर्मों का समावेश है। धर्म शब्द में अन्तर्भाव हआ है । कर्तव्यों में सबसे प्रमुख कर्मकाण्ड-(२) वेदों के सभी भाष्यकार इस बात से सहमत प्रारम्भ में 'यज्ञ' थे, किन्तु वर्ण, आश्रम, परिवार एवं हैं कि चारों वेदों में प्रधानतः तीन विषयों; कर्मकाण्ड, ज्ञान- समाज-सन्बन्धित कर्तव्य भी इसमें निहित थे । गीता का काण्ड एवं उपासनाकाण्ड का प्रतिपादन है। कर्मकाण्ड कर्मसिद्धान्त जिसे 'कर्मयोग' कहते हैं, यह बतलाता है अर्थात् यज्ञकर्म वह है जिससे यजमान को इस लोक में अभीष्ट कि वेदों में बताये गये कर्म केवल उतना ही फल इस लोक फल की प्राप्ति हो और मरने पर यथेष्ट सुख मिले । यजुर्वेद में या स्वर्ग में देते हैं जितना उन कर्मों ( यज्ञों) के लिए के प्रथम से उन्तालीसवें अध्याय तक यज्ञों का ही वर्णन निश्चित है, किन्तु जो मनुष्य इन्हें बिना इच्छा के है । अन्तिम अध्याय ( ४० वाँ ) इस वेद का उपसंहार (निष्काम) करता है, उसे मोक्ष प्राप्त होता है। योग शब्द है, जो 'ईशावास्योपनिषद्' कहलाता है। वेद का अधि- का प्रयोग गीता में अनेक अर्थों में हआ है । इसका कौन कांश कर्मकाण्ड और उपासना से परिपूर्ण है, शेष अल्प सा अर्थ 'कर्मयोग' है, इसका निश्चय करना कठिन है। भाग ही ज्ञानकाण्ड है । कर्मकाण्ड कनिष्ठ अधिकारी के किन्तु सम्भवतः यहाँ इसका अर्थ निग्रह है, अर्थात् लिए है। उपासना और कर्म मध्यम के लिए । कर्म, उपा- आसक्तिरहित कर्म । सना और ज्ञान तीनों उत्तम के लिए हैं। पूर्वमीमांसा कर्ममहिमा (विश्वव्यापिनी)-विश्व कर्मप्रधान है । कर्म का शास्त्र कर्मकाण्ड का प्रतिपादक है । इसका नाम 'पूर्वमी संस्कार ही मानव की मूल शक्ति है। इसी के अनुसार भांसा' इस लिए पड़ा कि कर्मकाण्ड मनुष्य का प्रथम धर्म मनुष्य के भाग्य का निर्णय होता है। कर्मभेद से ही है, ज्ञानकाण्ड का अधिकार उसके उपरान्त आता है । पूर्व मनुष्य अनेक योनियों-देव, मनुष्य, तिर्यक् आदि-में आचरणीय कर्मकाण्ड से सम्बन्धित होने के कारण इसे भ्रमण करता है । इसी के अनुसार वह लोक-लोकान्तर में पूर्वमीमांसा कहते है। ज्ञानकाण्ड-विषयक मीमांसा का जाता है। सत्त्वगुणात्मक कर्म पुण्य तथा तमोगुणात्मक दूसरा पक्ष 'उत्तरमीमासा' अथवा वेदान्त कहलाता है । कर्म पाप माना गया है । सत्त्वगुण के मार्ग पर चलनेवाला कर्मधारा-हिमालय का एक तीर्थस्थल । वराह भगवान् मनुष्य अपना अन्तःकरण शुद्ध करके परमानन्द मोक्ष को पाताल से पृथ्वी का उद्धार और हिरण्याक्ष का वध करने के प्राप्त करता है । तमोगुणी और पापकर्म करनेवाला पश्चात् यहाँ शिलारूप में स्थित हो गये थे । अलकनन्दा मानव अज्ञान और कर्मबन्धन में पड़ा रहता है। इसलिए की धारा में यह उच्च शिला है। यहाँ गङ्गाजी के तट कर्म के क्षेत्र में मनुष्य को पूर्णतः सावधान रहना चाहिए। पर कर्मधारा तथा कई तीर्थ है । कर्ममहिमा विस्तार से, शास्त्र के आधार पर नीचे दी कमनिर्णय-मध्चाचार्य द्वारा रचित एक दार्शनिक ग्रन्थ । जाती है : कर्मप्रदीप-सामवेद के गोभिल गृह्यसूत्र पर कात्यायन ने कर्म की महिमा इस बात से ही जानी जा सकती है परिशिष्ट लिखा है, जिसे 'कर्मप्रदीप' कहते हैं । यद्यपि यह कि वह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड तथा चराचर विश्व को व्याप्त गोभिलगृह्यसूत्र के पूरक रूप में लिखा गया है, तो भी किये हुए है । प्रलय के उपरान्त चतुर्दश लोकों में नवीन इसका आदर स्वतन्त्र गृह्यसूत्र और स्मृतिशास्त्र की तरह जीवनसृष्टि समष्टि जीवों के पूर्वकर्म के अनुसार होती होता आया है। आशादित्य शिवराम ने इस ग्रन्थ की है । समस्त देवताओं द्वारा संसार की नियमानुसार रक्षा टीका की है। कर्मचक्र का ही परिणाम है। इसी के आधार पर देवताकर्ममार्ग-धार्मिक साहित्य में मोक्ष के तीन मार्ग ज्ञानमार्ग, गण अपनी-अपनी नियमित गतियों को प्राप्त करते हैं। कर्ममार्ग तथा भक्तिमार्ग बतलाये गये हैं। उपनिषदों, निष्कर्ष यह है कि निखिल ब्रह्माण्ड में देव, ग्रह-नक्षत्र सांख्यदर्शन, बौद्ध एवं जैन दर्शनों के विकसित रूप में। तथा चराचर सभी कर्म के कारण स्थित और गतिमान् हैं। जिस मार्ग का अवलम्बन बताया गया है, उसे ज्ञानमार्ग सात्त्विक कर्म के तारतम्य से जीव को ऊवं सप्तलोकों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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