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________________ ओम्-औघड़ १४७ ओम्-प्रणव, ओंकार; परमात्मा । यह नाम अकार, उकार विन्ध्य पर्वत की आराधना से प्रसन्न होकर भगवान् शिव तथा मकार तीन वर्णी से बना हुआ है। कहा भी है : यहाँ ओङ्कारेश्वर रूप में विराजमान हुए हैं। अकारो विष्णुरुद्दिष्ट उकारस्तु महेश्वरः । ओगण-पश्चिमी पंडितों के विचार से ऋग्वेद (१०.८९. मकारेणोच्यते ब्रह्मा प्रणवेन त्रयो मताः ।। १५) में यह शब्द केवल बहुवचन में उन व्यक्तियों के [ अकार से विष्णु, उकार से महेश्वर, मकार से ब्रह्मा लिए प्रयुक्त हुआ है, जो वैदिक ऋषियों के शत्रु थे । का बोध होता है। इस प्रकार प्रणव से तीनों का बोध लुड्विग के अनुसार ( ऋग्वेद, ५.२०९ ) यह शब्द एक होता है । ] व्यक्ति विशेष का बोधक है। पिशेल ( वेदिके स्टुडिअन, यथा पर्ण पलाशस्य शकुनैकेन धार्यते । पृ० २, १९१, १९२ ) इसे एक विशेषण बतलाते हैं, तथा जगदिदं सर्वमोंकारेणैव धार्यते ।। जिसका अर्थ 'दुर्बल' है। (याज्ञवल्क्य) __ ओङ्कारवादार्थ-तृतीय श्रीनिवास ( अठारहवीं शताब्दी [ जैसे पलाश का पत्ता एक तिनके से उठाया जा __ के पूर्वार्ध में उत्पन्न ) द्वारा रचित एक ग्रन्थ । इसमें सकता है, उसी प्रकार यह विश्व ओंकार से धारण किया विशिष्टाद्वैत मत का समर्थन किया गया है । जाता है । ] ओषधिप्रस्थ–ओषधि-वनस्पतियों से भरपूर पर्वतीय भूमि; ओङ्कारश्चाथशब्दश्च द्वावेतौ ब्रह्मणः पुरा । ऐसे स्थान पर बसी हुई नगरी, जो हिमालय की राजकण्ठं भित्त्वा विनिर्यातौ तस्मान् माङ्गलिकावुभौ ॥ धानी थी। इसका कुमारसम्भव में वर्णन है : [ ओंकार और अथ शब्द ये दोनों ब्रह्मा के कण्ठ को तत्प्रयातौषधिप्रस्थं सिद्धये हिमवत्पुरम् । भेदन करके निकले है। इसीलिए इन्हें माङ्गलिक कहा [ कार्यसिद्धि के लिए हिमालय के ओषधिप्रस्थ नामक गया है। ] नगर को जाइए।] तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः । प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम् ।। उपासना और यौगिक क्रियाओं के लिए यह स्थान (गीता, अ०१७) उपयुक्त माना गया है। औ [ इसलिए 'ॐ' का उच्चारण करके ब्रह्मवादी लोग विधिपूर्वक निरन्तर यज्ञ, दान, तप की क्रिया आरम्भ औ-स्वर वर्ण का चतुर्दश अक्षर । कामधेनुतन्त्र में इसका करते हैं।] माहात्म्य इस प्रकार दिया हुआ है : ___'ओम्' स्वीकार, अंगीकार, रोष अर्थों में भी प्रयुक्त रक्तविद्युल्लताकारं औकारं कुण्डली स्वयम् । होता है। अत्र ब्रह्मादयः सर्वे तिष्ठन्ति सततं प्रिये ॥ योगी लोग ओंकार का उच्चारण दीर्घतम घंटाध्वनि पञ्चप्राणमयं वर्ण सदाशिवमयं सदा। के समान बहुत लम्बा या अत्यन्त प्लुत स्वर से करते हैं, सदा ईश्वरसंयुक्तं चतुर्वर्गप्रदायकम् ॥ उसका नाम 'उद्गीथ' है। प्लुत के सूचनार्थ ही इसके तन्त्रशास्त्र में इसके निम्नलिखित नाम हैं : बीच में '३' का अंक लिखा जाता है। इसकी गुप्त चौथी औकारः शक्तिको नादस्तेजसो वामजङ्घकः । मनुरर्द्धग्रहेशश्च मात्रा का उच्चारण या चिन्तन ब्रह्मज्ञानी जन करते है। शङ्कर्णः सदाशिवः ।। ओङ्कारेश्वर-प्रसिद्ध शव तीर्थ । द्वादश ज्योतिलिङ्गों में अधोदन्तश्च कण्ठ्योष्ठ्यौ सङ्कर्षणः सरस्वती । 'ओङ्कारेश्वर' की गणना है। यहाँ दो ज्योतिर्लिङ्ग हैं; आज्ञा चोर्ध्वमुखी शान्तो व्यापिनी प्रकृतः पयः ।। ओडारेश्वर और अमलेश्वर । नर्मदा नदी के बीच में अनन्ता ज्वालिनी व्योमा चतुर्दशी रतिप्रियः । मान्धाता द्वीप पर ओडारेश्वर लिङ्ग है । यहीं पर सूर्य- नेत्रमात्मकर्षिणी च ज्वाला मालिनिका भृगुः ।। वंश के चक्रवर्ती राजा मान्धाता ने शङ्कर की तपस्या की औघड़-प्राचीन पाशुपत सम्प्रदाय प्रायः लुप्त हो गया है। थी। इस द्वीप का आकार प्रणव से मिलता जलता है। उसके कुछ विकृत अनुयायी अघोरी अवश्य देखे जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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