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________________ १४८ औडुलोमि-क वे पुराने कापालिक हैं एवं गोरख और कबीर के प्रभाव से परिवर्तित रूप में दीख पड़ते हैं। ___ तान्त्रिक एवं कापालिक भावों का मिश्रण इनकी चर्या में देखा जाता है, अतः ये किसी बन्धन या नियम से अव- घटित-अघटित ( नहीं गढ़े हुए) मस्त, फक्कड़ पड़े रहते हैं, इसी से ये औधड़ कहलाते हैं । दे० 'अघोर पंथ'। औडुलोमि-एक पुरातन वेदान्ताचार्य । वेदान्ती दार्शनिक आत्मा एवं ब्रह्म के सम्बन्ध की प्रायः तीन प्रकार से व्याख्या करते हैं। आश्मरथ्य के अनुसार आत्मा न तो ब्रह्म से भिन्न है न अभिन्न । इनके सिद्धान्त को भेदाभेदवाद कहते हैं। दूसरे विचारक औडुलोमि हैं। इनका कथन है कि आत्मा ब्रह्म से तब तक भिन्न है, जब तक यह मोक्ष पाकर ब्रह्म में मिल नहीं जाता । इनके सिद्धान्त को सत्यभेद या द्वैत सिद्धान्त कहते हैं । तीसरे विचारक काशकृत्स्न हैं। इनके उनुसार आत्मा ब्रह्म से बिल्कुल अभिन्न है। इनका सिद्धान्त अद्वैतवाद है। आचार्य औडुलोमि का नाम केवल वेदान्तसूत्र ( १.४. २१;३.४.४५;४.४.६ ) में ही मिलता है, मीमांसासूत्र में नहीं मिलता । ये भी बादरायण के पूर्ववर्ती जान पड़ते है । ये वेदान्त के आचार्य और आत्मा-ब्रह्म भेदवाद के समर्थक थे। औद्गात्रसारसंग्रह-सामवेदी विधियों का संग्रहरूप एक निबन्धग्रन्थ है। सामवेद का अन्य श्रौतसूत्र 'द्राह्यायण' है । 'लाटचायन श्रौतसूत्र' से इसका बहत थोडा भेद है। यह सामवेद की राणायनीय शाखा से सम्बन्ध रखता है । मध्वस्वामी ने इसका भाष्य लिखा है तथा रुद्रस्कन्द स्वामी ने 'औदगात्रसारसंग्रह' नाम के निबन्ध में उस भाष्य का संस्कार किया है। और्ध्वदेहिक-शरीर त्याग के बाद आत्मा की सद्गति के लिए किया हआ कर्म । मृत शरीर के लिए उस दिन प्रदत्त दान और संस्कार का नाम भी यही है । जिस दिन व्यक्ति मरा हो उस दिन से लेकर सपिण्डीकरण के पूर्व तक प्रेत की तृप्ति के लिए जो पिण्ड आदि दिया जाता है, वह सब और्ध्वदेहिक कहलता है। दे० 'अन्त्येष्टि' । मनु ( ११.१० ) में कहा गया है : भृत्यानामुपरोधेन यत्करोत्यौवंदेहिकम् । तद्वत्यसूखोद जीवतश्च मतस्य च ॥ [ अपने आश्रित रहने वालों को कष्ट देकर जो मतात्मा के लिए दान आदि देता है वह दान जीवन में तथा मरने के पश्चात् भी दुःखकारक होता है।] और्णनाभ-ऋग्वेद (१०.१२०.६ ) में दनु के सात पुत्र दानवों के नाम आते हैं। ये अनावृष्टि ( सूखा ) के दानव हैं और सूखे मौसम में आकाश की विभिन्न अवस्थाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं । इनमें वृत्र आकाशीय जल को अवरुद्ध करने वाला है जो सारे आकाश में छाया रहता है । दूसरा शुश्न है जो सस्य को नष्ट करता है । यह वर्षा ( मानसून ) के पहले पड़ने वाली प्रचंड गर्मी का प्रतिनिधि है। तीसरा और्णनाभ ( मकड़ी का पुत्र ) है । कदाचित् इसका ऐसा नाम इसलिए पड़ा कि सूखे मौसम में आकाश का दृश्य फैले हुए ऊन या मकड़े जैसा हो जाता है। औरस-अपने अंश से धर्मपत्नी के द्वारा उत्पन्न सन्तान । याज्ञवल्क्य के अनुसार : स्वक्षेत्रे संस्कृतायान्तु स्वयमुत्पादयेद्धि यम् । तमौरसं विजानीयात् पुत्रं प्रथमकल्पितम् ।। [संस्कारपूर्वक विवाहित स्त्री से जो पुत्र उत्पन्न किया जाता है उसे सर्वश्रेष्ठ औरस पुत्र जानना चाहिए। ] धर्मशास्त्र में औरस पुत्र के अधिकारों और कर्तव्यों का विस्तृत वर्णन पाया जाता है। अ: अ:-यह एकाक्षरकोश के अनुसार महेश्वर का प्रतीक है । महाभारत में भी इसकी पुष्टि हुई है : बिन्दुविसर्गः सुमुखः शरः सर्वायुधः सहः । (१३.१७.१२६) कामधेनुतन्त्र में इसका प्रतीकत्व वर्णित है : अःकारं परमेशानि विसर्ग सहितं सदा । अकारं परमेशानि रक्तविद्युत्प्रभामयम् ।। पञ्चदेवमयो वर्णः पञ्चप्राणमयः सदा । सर्वज्ञानमयो वर्णः आत्मादितत्त्वसंयुतः ।। बिन्दूत्रयमयो वर्णः शक्तित्रयमयः सदा। किशोरवयसः सर्वे गीतवाद्यादि तत्पराः ॥ शिवस्य युवती एताः स्वयं कुण्डली मूर्तिमान् ॥ क-व्यञ्जनवर्ण के कवर्ग का प्रथम अक्षर । कामधेनुतन्त्र में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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