SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपाध्याय-उपासन जाता है । इसमें ललितादेवी (पार्वती) की पूजा होती है । यह दक्षिण में अधिक प्रचलित है । उपाध्याय - जिसके पास आकर अध्ययन किया जाता है । अध्यापक, वेदपाठक मनु० (२.१४५) का कथन है एकदेशं तु वेदस्य वेदाङ्गान्यपि वा पुनः । योऽध्यापयति वृत्त्यर्थमुपाध्यायः स उच्यते ॥ [ वेद के एक देश अथवा अङ्ग को जो वृत्ति के लिए अध्ययन कराता है उसे उपाध्याय कहते हैं । ] ऐसा भविष्य पुराण के दूसरे अध्याय में भी कहा है। चूंकि शुल्क ग्रहण करके जीविका के लिए उपाध्याय अध्यापन करते थे, इसलिए ब्राह्मणो में उनका स्थान ऊंचा नहीं था। कारण यह है कि ज्ञान विक्रय को भी वणिक् वृत्ति माना गया है : यस्यागमः केवलजीविकायै तं ज्ञानपण्यं वणिजं वदन्ति । [ जिसका आगम ( शास्त्र - ज्ञान ) केवल जीविका के लिए है, उसे (विद्वान् लोग ) ज्ञान की दुकान करने वाला वणिक् कहते हैं । ] उपाध्याया - महिला अध्यापिका । यह अपने अधिकार से 'उपाध्याया' होती है, उपाध्याय की पत्नी होने के कारण नहीं । उपाध्याय की पत्नी को 'उपाध्यायानी' कहते हैं । उपाध्यायानी— उपाध्याय की पत्नी महाभारत (१०९.९६ ) में कथन है : स एवमुक्त उपाध्यायेनोपाध्यायानीमपृच्छत् ।' [ उपाध्याय से इस प्रकार कहे जाने पर उसने उपाध्यायानी से पूछा ] गृहासक्त होने से इसको अध्यापन का अधिकार नहीं होता । उपाध्यायी— उपाध्याय की पत्नी, अध्यापकभार्या । उपाधि - धर्मचिन्ता धर्मपालनार्य सावधानी, कुटुम्बव्यापृत, आरोप, छल, उपद्रव । रामायण ( २.१११.२९) में कथन है : उपाधिर्न मया कार्या वनवासे जुगुप्सितः । [ वनवास में मैं छल, कपट नहीं करूँगा । ] तर्कशास्त्र में इसका अर्थ है 'साध्यव्यापकत्व होने पर हेतु का अव्यापकत्व होना ।' जैसे अग्नि धूमयुक्त हैं, यहाँ काष्ठ का गीला होना उपाधि है । इसका प्रयोजन व्यभिचार (लक्ष्य- अतीत ) का अनुमान शुद्ध करना है। उपाधिखण्डन - आचार्य मध्व ने 'उपाधिखण्डन' नामक Jain Education International १२३ ग्रन्थ में सिद्ध किया है कि ईश्वर और आत्मा का भेद पारमार्थिक है। औपाधिक भेदवाद अतिविरुद्ध और युक्तिहीन है । जयतीर्थाचार्य ने 'उपाधिखण्डन' की टीका लिखी है। इस ग्रन्थ में द्वैत सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है । उपाय—कार्यसिद्धि का साधन । धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र के अनुसार उपाय चार है--साम, दान, भेद और दण्ड । - राजनय में इन्हीं उपायों का प्रयोग किया जाता है । हिन्दू धर्म के अनुसार युद्ध के परिणाम जय और पराजय दोनों ही अनित्य हैं । अतः युद्ध का आश्रय कम से कम लेना चाहिए। जब प्रथम तीन उपाय- साम, दान और भेद असफल हो जायँ तभी दण्ड अथवा युद्ध का अवलम्बन करना चाहिए | इन उपायों का साधारणतः क्रमशः प्रयोग करना चाहिए । परन्तु विशेष परिस्थिति में चारों का साथ-साथ प्रयोग हो सकता है। उपायपद्धति — शुक्ल यजुर्वेद के प्रातिशाख्यसूत्र और उसकी अनुक्रमणी भी कात्यायन की रचना के नाम से प्रसिद्ध हैं। इस प्रातिशाख्यसूत्र में शाकटायन, शाकल्य, गार्ग्य, कश्यप, दालभ्य जतुकण्यं, शौनक और औपशिति के नाम भी पाये जाते हैं । इस अनुक्रमणी की एक 'उपायपद्धति' नामक व्याख्या श्रीहल की बनायी हुई है । उपासक - पूजक; जो सेवा करता है; उपासना करनेवाला; पूज्य के समीप बैठकर उसका चिन्तन करने वाला । द्विजों का सेवक होने के कारण शूद्र को भी उपासक कहा गया है । साधारणतः किसी भी प्रकार की उपासना (ध्येय के निकट आसन) करने वाले को उपासक कहा जाता है। बौद्ध धर्म में बुद्ध के गृहस्थ अनुयायी को उपासक कहा जाता है । उपासन — गोरखनाथी मत के योगियों में हठयोग की प्रणाली अधिक प्रचलित है। इसके अनुसार शरीर की कुछ कायिक परिशुद्धि एवं निश्चित किये गये शारीरिक व्यायामों द्वारा 'समाधि' अर्थात् मस्तिष्क की सर्वोत्कृष्ट एकाग्रता प्राप्त की जा सकती है। इन्हीं शारीरिक व्यायामों को 'आसन' कहते हैं । पश्चात्कालीन योगी जबकि 'आसन' पर विश्वास करते थे, प्राचीन योगी 'उपासन' पर विश्वास करते थे। 'उपासन' उपासना का ही पर्याय है । इसका अर्थ है 'अपने आराध्य अथवा ध्येय के सान्निध्य में बैठना। इसके लिए भावात्मक अनुभूति For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy