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________________ १२२ उपशम-उपाङ्गललिताव्रत का सारा विज्ञान है और समाजशास्त्र के सङ्गठन और प्रमीत, प्रोक्षित, मृत आदि । पाक क्रिया द्वारा रूप, रस राष्ट्रनीति का कथन है। धनुर्वेद में सैन्यविज्ञान, युद्ध- आदि से सम्पन्न व्यञ्जन भी उपसम्पन्न कहा जाता है। क्रिया, व्यक्ति एवं समष्टि सबकी रक्षा के साधन और उसके पर्याय है प्रणीत, पर्याप्त, संस्कृत । मनु (५.८१) उनके प्रयोग की विधियाँ दी हुई हैं। गान्धर्ववेद में संगीत में मृत के अर्थ में ही इसका प्रयोग हुआ है : का विज्ञान है जो मन के उत्तम से उत्तम भावों को उद्दीप्त श्रोत्रिये तूपसम्पन्ने त्रिरात्रमशुचिर्भवेत् । करने वाला और उसकी चञ्चलता को मिटाकर स्थिररूप [श्रोत्रिय ब्राह्मण के मर जाने पर तीन दिन तक से उसे परमात्मा के ध्यान में लगा देने वाला है । लोक ___अपवित्रता रहती है।] में यह कला कामशास्त्र के अन्तर्गत है, परन्तु वेद में उपाकरण-संस्कारपूर्वक वेदों का ग्रहण । इसका अर्थ मोक्ष के उपायों में यह एक प्रधान साधन है। आयुर्वेद में 'संस्कारपूर्वक पशओं को मारना' भी है। आश्वलायन रोगी शरीर और मन को स्वस्थ करने के साधनों पर श्री० सू० (१०.४) में कथन है : साङ्गोपाङ्ग विचार किया गया है। इस प्रकार ये चारों "उपाकरण कालेऽश्वमानीय ।" विज्ञान चारों वेदों के आनुङ्गिक सहायक है। [संस्कार के समय में घोड़े को (बलिदानार्थ) लाकर।] उपशम-अन्तःकरण की स्थिरता। इसके पर्याय हैं शम, उपाकृत-संस्कारित बलिपशु, यज्ञ में अभिमन्त्रित करके शान्ति, शमथ, तृष्णाक्षय, मानसिक विरति । मारा गया पशु । धर्मशास्त्र में कथन है : प्रबोधचन्द्रोदय में कहा गया है : 'अनुपाकृतामांसानि देवान्नानि हवींषि च ।' 'तथायमपि कृतकर्तव्यः संप्रति परमामुपशमनिष्ठां प्राप्त : ।' [अनभिमंत्रित मांस, देव-अन्न तथा हविष् (अग्राह्य [यह भी कृतकृत्य होकर इस समय अत्यन्त तृष्णाक्षय को प्राप्त हो गया है । ] उपागम-शैव आगमों में से प्रत्येक के कई उपागम हैं। उपश्र ति-प्रश्नों के दैवी उत्तर को सुनना। हारावली में आगम अट्ठाईस हैं और उपागमों की संख्या १९८ है । कहा है: उपाग्रहण-उपाकरण, संस्कारपूर्वक गुरु से वेद ग्रहण नक्तं निर्गत्य यत् किञ्चिच्छुभाशुभकरं वचः । (अमर-टीका में रायमुकुट)। श्रूयते तद्विदुर्धीरा दैवप्रश्नमुपश्रुतिम् ॥ उपाङ्ग-वेदों के उपांगों में प्राचीन प्रमाणानुसार पहला [ रात्रि में घर से बाहर जाकर जो कुछ भी शुभ या उपाङ्ग इतिहास-पुराण है, दुसरा धर्मशास्त्र, तीसरा न्याय अशुभ वाक्य सुना जाता है, उसे विद्वान् लोग प्रश्न का और चौथा मीमांसा। इनमें न्याय और मीमांसा की दैवी उत्तर उपश्रु ति कहते हैं । यह एक प्रकार का एकान्त गिनती दर्शनों में है, इसलिए इनको अलग-अलग दो में चिन्तन से प्राप्त ज्ञान अथवा अनुभूति है। इसलिए उपाङ्ग न मानकर एक उपाङ्ग 'दर्शन' के नाम से रखा श्रुति अथवा शब्दप्रमाण के साथ ही इसको भी उपश्रुति- गया और चौथे की पूर्ति तन्त्रशास्त्र से की गयी। प्रमाण (यद्यपि गौण) मान लिया गया है। मीमांसा और न्याय ये दोनों शास्त्र शिक्षा, व्याकरण और उपसद्-अग्निविशेष । अग्निपुराण के गणभेद नामक निरुक्त के आनुषङ्गिक (सहायक) हैं। धर्मशास्त्र श्रौतसूत्रों अध्याय में कथन है : का आनुषङ्गिक है और पुराण ब्राह्मणभाग के ऐतिगाहपत्यो दक्षिणाग्निस्तथैवाहवनीयकः । हासिक अंशों का पूरक है। एतेऽग्नयस्त्रयो मुख्याः शेषाश्चोपसदस्त्रयः ।। चौथा उपाङ्ग तन्त्र शिवोक्त है। प्रधानतः इसके तीन [ गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि तथा आहवनीय ये तीन अग्नियाँ विभाग है-आगम, यामल और तन्त्र । तन्त्रों में प्रायः मुख्य हैं। उन्हीं विषयों का विस्तार है, जिनपर पुराण लिखे गये यह एक यज्ञभेद भी है। आश्वलायनश्रौतसूत्र (४.८. हैं । साथ ही साथ इनके अन्तर्गत गुह्यशास्त्र भी है जो १) में उपसद नामक यज्ञों में इसका प्रचरण बतलाया दीक्षित और अभिषिक्त के सिवा और किसी को बताया गया है। नहीं जाता। उपसम्पन्न-यज्ञ के लिए मारा गया पशु । उसके पर्याय हैं उपाङ्गललिताव्रत-यह आश्विन शुक्ल पञ्चमी को किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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