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________________ उत्तराडीसाधु-उत्सर्जन वेद भी अनन्त हैं, देवता हैं, जो वेदविहित यज्ञों द्वारा में व्यवहृत होने वाले सूक्त उस गानक्रम में व्यवस्थित होते पोषण प्राप्त करते हैं। हैं, जिस क्रम में उद्गाता छात्रों को ये सिखलाये जाते हैं । जीव या व्यक्तिगत आत्मा आदि-अन्तहीन है, चेतना- उत्तराचिक (राणायनीय)-सामवेद में जो ऋचाएं आयी युक्त है, सर्वव्यापी है । यह ब्रह्म का ही अंश है; यह स्वयं हैं, उन्हें 'आचिक' कहा गया है। साम-आचिक ग्रन्थ ब्रह्म है । इसका व्यक्तिगत रूप केवल एक झलक है । अनु- अध्यापकभेद, देशभेद, कालभेद, पाठ्यक्रमभेद और उच्चाभव द्वारा मनुष्य ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर सकता है। ब्रह्म रण आदि भेद से अनेक शाखाओं में विभक्त हैं। सब केवल 'ज्ञानमय' है जो मनुष्य को मुक्ति दिलाने में समर्थ शाखाओं में मन्त्र एक जैसे ही है, उनकी संख्या में व्यतिहै। ब्रह्मचर्यपूर्वक ब्रह्म का चिन्तन, जैसा कि वेदों (उप- क्रम है। प्रत्येक शाखा के श्रौत एवं गृह्यसूत्र और प्रातिनिषदों) में बताया गया है, सच्चे ज्ञान का मार्ग है । कर्म से शाख्य भिन्न-भिन्न है । सामवेद की शाखाएँ कही तो जाती कार्य का फल प्राप्त होता है और इसके लिए पुनर्जन्म होता हैं एक सहस्र, पर प्रचलित है केवल तेरह। कुछ है । ज्ञान से मुक्ति की प्राप्ति होती है । दे० 'ब्रह्मसूत्र' । लोगों के मत से वास्तव में तेरह ही शाखाएं हैं, क्योंकि उत्तराडी साधु-दादूपंथी साधुओं के पाँच प्रकार हैं-(१) जो "सहस्रतमा गीत्युपायाः" के प्रमाण से सहस्र शाखाएँ खालसा, (२) नागा, (३) उत्तराडी, (४) विरक्त और बतायी जाती हैं, उसका अर्थ "हजारों तरह से गाने के (५) खाकी। उत्तराडी साधुओं की मण्डली पञ्जाब में उपाय' है। उन तेरह शाखाओं में से भी आज केवल दो बनवारीदास ने बनायी थी। इनमें बहुत से विद्वान् साधु प्रचलित है। उत्तर भारत में 'कौथमी शाखा' और दक्षिण होते थे, जो अन्य साधुओं को पढ़ाते थे। कुछ वैद्य होते में 'राणायनीय शाखा' प्रचलित हैं। उत्तराचिक में एक थे। दादूपंथी साधओं की प्रथम तीन श्रेणियों के सदस्य छन्द की, एक स्वर की और एक तात्पर्य की तीन-तीन जो व्यवसाय चाहें कर सकते हैं, किन्तु चौथी श्रेणी, ऋचाओं को लेकर एक-एक सूक्त कर दिया गया है। इस अर्थात् विरक्त न कोई पेशा कर सकते हैं न द्रव्य को छु प्रकार के सूक्तों का सामवेदीय संग्रह जो दक्षिण में प्रचलित सकते हैं । खाकी साधु भभूत (भस्म) लपेटे रहते हैं और है 'उत्तराचिक राणायनीय संहिता' के नाम से पुकारा भाँति-भाँति की तपस्या करते हैं । तीनों श्रेणियों के साधु जाता है । ब्रह्मचारी होते हैं और गृहस्थ लोग 'सेवक' कहलाते हैं। उत्पल-उत्पल अथवा उत्पलाचार्य दशम शताब्दी के एक उत्तरायण-भमध्य रेखा के उत्तर तथा दक्षिण में सूर्य की शैव आचार्य थे, जिन्होंने 'ईश्वरप्रत्यभिज्ञाकारिका' की स्थिति के क्रम से दो अयन-उत्तरायण और दक्षिणायन रचना की तथा इस पर एक भाष्य भी लिखा । यह ग्रन्थ होते हैं । धार्मिक विश्वासों तथा क्रियाओं में इनका बहुत सोमानन्दकृत 'शिवदृष्टि' की शिक्षाओं का सारसंग्रह है। महत्त्व है । ऋतुओं का परिवर्तन भी इन्हीं के कारण होता उत्पल वैष्णव-'स्पन्दप्रदीपिका' के रचयिता उत्पल वैष्णव है । प्रत्येक अयन (उत्तरायण या दक्षिणायन) के प्रारम्भ में का जीवनकाल दसवीं शती का उत्तरार्ध था । 'स्पन्ददान की महत्ता प्रतिपादित की गयी है। अयन के प्रारम्भ प्रदीपिका' कल्लटरचित 'स्पन्दकारिका' की व्याख्या है। में किया गया दान करोड़ों पुण्यों को प्रदान करता है, जब- उत्पात-प्राणियों के शुभ-अशुभ का सूचक महाभूत-विकार, कि अमावस्या के दान केवल एक सौ पुण्य प्रदान करते हैं। भूकम्प आदि । इसका शाब्दिक अर्थ है 'जो अकस्मात् दे० भोज का राजमार्तण्ड, वर्षकृत्यकौमुदी, पृ० २१४। आता है।' इसके पर्याय हैं-(१) अजन्य और (२) उत्तराचिक-यह चार सौ सूक्कों का एक सामवेदी संग्रह है, उपसर्ग । वह तीन प्रकार का है-(१) दिव्य, जैसे बिना जिसमें से प्रत्येक में लगभग तीन-तीन ऋचाएँ हैं। सब पर्व में चन्द्र एवं सूर्य का ग्रहण आदि, (२) अन्तरीक्ष्य, मिलाकर इसमें लगभग १२२५ छन्द हैं। उत्तराचिक जैसे उल्कापात और मेघगर्जन आदि और (३) भौम, स्तुतिग्रन्थ है। 'आचिक' शब्द का अर्थ ही है ऋचाओं जैसे भूकम्प, तुफान आदि । इन उत्पातों की शान्ति के लिए का 'स्तुतिग्रन्थ' । आचिक के छन्द विभिन्न वर्गों में बहुत सी धार्मिक क्रियाओं का विधान किया गया है। विभिन्न देवों के अनुसार बँटे हुए हैं। फिर ये प्रत्येक छन्द- उत्सर्जन-छोड़ देना, त्याग देना । इसके पर्याय हैं (१) समूह दस-दस की संख्या में बँटे होते हैं । फिर सोमयज्ञ दान, (२) विसर्जन, (३) विहापित, (४) विश्राणन, (५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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