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________________ १०८ उज्ज्वलनीलमणि-उत्तरमीमांसा यहाँ भी एक पीठ है । हरसिद्धि देवी का मन्दिर ही सिद्ध पीठ है । महर्षि सान्दीपनि का आश्रम भी यहीं था । उज्ज- जि विक्रमादित्य की राजधानी थी । भारतीय ज्योतिष शास्त्र में देशान्तर की शून्य रेखा उज्जयिनी से प्रारम्भ हुई मानी जाती है । यहाँ बारह वर्ष में एक बार कुम्भ मेला लगता है । इसकी गणना सात पवित्र पुरियों अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्ची अवन्तिका । पुरी द्वारवती चैव सप्तता मोक्षदायिकाः ॥ उज्ज्वलनीलमणि--रूप गोस्वामी कृत अलङ्कारशास्त्र का एक प्रामाणिक एवं प्रसिद्ध ग्रन्थ । रूप गोस्वामी महाप्रभु चैतन्य के शिष्य थे। अलङ्कारशास्त्र में प्रायः सामान्य पार्थिव प्रेम का ही चित्रण पाया जाता है। रूप गोस्वामी ने 'उज्ज्वलनीलमणि' में भगवद्-माधुर्य और रति ( निष्काम प्रेम ) का ही निरूपण किया है । वास्तव में उनके 'भक्तिरसामृतसिन्ध' के सिद्धान्तों का ही इसमें प्रदर्शन है । इस ग्रन्थ में साध्यभक्ति के भावों में तीन और जोड़े गये हैं-मान, अनुराग और महाभाव । उज्ज्वल रस-साहित्य में शृङ्गार का वर्ण श्याम कहा गया है। किन्तु भक्तिशास्त्र का शृंगार उज्ज्वल है । रूप गोस्वामी द्वारा रचित 'उज्ज्वलनीलमणि' में इस शब्द का प्रयोग अलौकिक रागानुगा भक्ति के लिए हुआ है, जिसमें शृङ्गार रस का पूर्ण अन्तर्भाव है । वास्तव में माधुर्य भक्तिवादी लोग भक्ति को ही रस मानते हैं, जो लौकिक शृंगार से भिन्न है, क्योंकि इसके अवलम्बन स्वयं भगवान हैं। इसलिए लौकिक राग से मुक्त होने के कारण इसका वर्ण उज्ज्वल है। उञ्छ-खेत से अन्न उठा लेने के पश्चात् शेष अन्न के दाने चनने को उञ्छ कहा जाता है । गेहँ, धान आदि की खेत में गिरी मञ्जरियाँ चुनने को 'शिल' कहते हैं और एकएक दाना चुनने को 'उञ्छ' । उञ्छ-शिल या शिलोञ्छ वृत्ति शब्द प्रायः एक साथ प्रयोग में आते हैं । उञ्छ-वृत्ति ब्राह्मणों के लिए श्रेष्ठ कही गयी है । सिद्धान्त यह है कि जो बिना माँगे मिलता है वह 'अमृत' है और जो मांगने से मिलता है वह 'मृत' है । ब्राह्मण को अमृत पर ही निर्वाह करना चाहिए। उत्कोच-शाब्दिक अर्थ 'जो शुभ का नाश करता है' (उत् + कुच् + क)। इसके लिए घस शब्द प्रसिद्ध है। इसके पर्याय हैं : (१) प्राभूत, (२) ढौकन, (३) लम्बा , (४) कोशलिक, (५) आमिष, (६) उपाचार, (७) प्रदा, (८) आनन्दा, (९) हार, (१०) ग्राह्य, (११) अयन, (१२) उपदानक और (१३) अपप्रदान । याज्ञवल्क्यस्मृति (१।३३८) में कथन है : उत्कोचजीविनो द्रव्यहीनान् कृत्वा विवासयेत् । घिस लेने वालों को धन छीनकर देश से निर्वासित कर देना चाहिए।] उत्तराभाद्रपदा-अश्विनी आदि सत्ताईस नक्षत्रों के अन्तर्गत इक्कीसवाँ नक्षत्र; प्रौष्ठपदा। इसका रूप सूकार चार ताराओं से युक्त है । इसका अधिदेवता अहिर्बुध्न है । उत्तर मीमांसा-छ: हिन्दू चिन्तन प्रणालियाँ प्रचलित हैं। वे 'दर्शन' कहलाती हैं, क्योंकि वे विश्व को देखने और समझने की दृष्टि या विचार प्रस्तुत करती हैं। उनके तीन यग्म है, क्योंकि प्रत्येक युग्म में कुछ विचारों का साम्य परिलक्षित होता है। पहला युग्म मीमांसा कहलाता है, जिसका सम्बन्ध वेदों से है। मीमांसा का अर्थ है खोज, छानबीन अथवा अनुसन्धान । मीमांसायुग्म का पूर्व भाग, जिसे पूर्व मीमांसा कहते हैं, वेद के याज्ञिक रूप (कर्मकाण्ड) के विवेचन का शास्त्र है। दूसरा भाग, जिसे उत्तर मीमांसा या वेदान्त भी कहते हैं, उपनिषदों से सम्बन्धित है तथा उनके ही दार्शनिक तत्त्वों की छानबीन करता है। ये दोनों सच्चे अर्थ में सम्पूर्ण हिन्दू दार्शनिक एवं धार्मिक प्रणाली का रूप खड़ा करते हैं। उत्तर मीमांसा का सम्बन्ध भारत के सम्पूर्ण दार्शनिक इतिहास से है। उत्तर मीमांसा के आधारभूत ग्रन्थ को 'वेदान्तसूत्र', 'ब्रह्मसूत्र' एवं 'शारीरकसूत्र' भी कहते है, क्योंकि इसका विषय परब्रह्म (आत्मा = ब्रह्म) है। 'वेदान्तसूत्र' वादरायण के रचे कहे जाते है जो चार अध्यायों में विभक्त हैं । इस दर्शन का संक्षिप्त सार निम्नलिखित है : ब्रह्म निराकार है, वह चेतन है, वह श्रुतियों का उद्गम है एवं सर्वज्ञ है तथा उसे केवल वेदों द्वारा जाना जा सकता है। वह सृष्टि का मौलिक एवं अन्तिम कारण है। उसकी कोई इच्छा नहीं है। एतदर्थ वह अकर्मण्य है, दृश्य जगत् उसकी लीला है । विश्व, जो ब्रह्म द्वारा समय समय पर उद्भत होता है उसका न आदि है न अन्त है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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