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________________ आर्षानुक्रमणी-आश्रम पूर्व एशिया के प्रदेश सम्मिलित थे । इन प्रदेशों में सामी आश्मरथ्य आचार्य-वेदान्त के व्याख्याता प्राचीन आचार्य । और किरात प्रजाति बाद में आकर बस गयी। वेदान्तसूत्र ( १ । २ । २१; १ । ४ । २० ) में जो इनके आर्षानुक्रमणी-शौनक ऋषि प्रणीत एक वैदिक अनुक्रमणी मत का उल्लेख आया है उससे आचार्य शङ्कर तथा भामग्रन्थ । ऋग्वेद के समस्त सूक्त संख्या में १०२८ हैं । इनमें से तोकार वाचस्पति मिश्र ने इन्हें विशिष्टाद्वैतवादी सिद्ध 'बालखिल्य' नामक ११ सूक्तों पर सायणाचार्य का भाष्य किया है । अतः ये वेदव्यास और जैमिनि से पहले हुए थे। है । शौनक ऋषि की आर्षानुक्रमणी में उनका उल्लेख इनका मत है कि परमेश्वर अनन्त होने पर भी उपासक पाया जाता है। के ऊपर अनुग्रह करने के लिए प्रादेशमात्र स्थान में आविआर्षेय ब्रह्माण-सामवेद की जैमिनीय संहिता का एक भूत होते हैं और विज्ञानात्मा एवं परमात्मा में परस्पर ब्राह्मण । सायणाचार्य ने इसका भी भाष्य किया है। इस भेदाभेद-सम्बन्ध है । कहा जाता है कि आश्मरथ्य के इस ग्रन्थ में ऋषि सम्बन्धी उपदेश है, अर्थात् सामों के ऋषि, भेदाभेद की ही आगे चलकर यादवप्रकाश के द्वारा पुष्टि छन्द, देवता इत्यादि पर व्याख्या और विचार है । साथ हई है । इसके अनुसार आत्मा न तो एकान्ततः ब्रह्म से ही कई धार्मिक तथा पौराणिक कथाएं पायी जाती हैं। भिन्न है और न अभिन्न है । स्वामी निम्बार्काचार्य तथा संस्कृत के कथा-साहित्य की प्राचीन परम्परा इसमें भास्कराचार्य द्वारा प्रस्तुत वेदान्तसूत्र के भाष्य में भी सुरक्षित हैं। आश्मरथ्य के भेदाभेदवाद का पोषण हुआ है। आलेख्यसर्पपञ्चमी (नागपञ्चमी)-उत्तर भारत में श्रावण आश्रम-जिन दो संस्थाओं के ऊपर हिन्दू समाज का संगशक्ल पञ्चमी को तथा दक्षिण भारत में (अमान्त गणना ठन हुआ है वे हैं वर्ण और आश्रम । वर्ण का आधार मनुष्य के अनुसार) भाद्र शुक्ल पंचमी को यह व्रत होता है। की प्रकृति अथवा उसकी मूल प्रवृत्तियाँ है, जिसके अनुसार रंगीन चूर्णों से किसी स्थान पर नागों की आकृतियाँ वह जीवन में अपने प्रयत्नों और कर्तव्यों का चुनाव करता बनाकर उनका पूजन करना चाहिए। परिणामस्वरूप है । आश्रम का आधार संस्कृति अथवा व्यक्तिजत जीवन नागों के भय से मुक्ति होती है। दे० भविष्यत् पुराण का संस्कार करना है । मनुष्य जन्मना अनगढ़ और असंस्कृत (ब्राह्म पर्व, ३७.१-३)। होता है; क्रमशः संस्कार से वह प्रबुद्ध और संस्कृत बन आवसथ-इसका ठीक अर्थ अतिथि-स्वागतशाला अथवा जाता है । सम्पूर्ण मानवजीवन मोटे तौर पर चार विकासस्थान है (अथर्व० ९.६,५)। इसका सम्बन्ध विशेष रूप क्रमों में बाँटा जा सकता है-(१) बाल्य और किशोरासे ब्राह्मण एवं दूसरों से था, जो भोज तथा यज्ञों के अव वस्था, (२) यौवन, (३) प्रौढावस्था और (४) वृद्धावस्था । सर पर आते थे। यह प्रायः आधुनिक धर्मशाला अथवा इन्हीं के अनुरूप चार आश्रमों की कल्पना की गयी थी, यात्रीनिवास के समान था। इसका प्रयोग निवासस्थान जो (१) ब्रह्मचर्य, (२) गार्हस्थ्य,(३) वानप्रस्थ और संन्यास के साधारण अर्थ में भी होता जान पड़ता है (ऐ० कहलाते हैं। आश्रमों के नाम और क्रम में कहीं कहीं अन्तर उप० ३.१२)। पाया जाता है। आपस्तम्ब धर्मसूत्र (२.९.२१,१) के अनुसार आशादशमी व्रत-किसी मास के शुक्ल पक्ष की दशमी को गार्हस्थ्य, आचार्यकुल (ब्रह्मचर्य ), मौन और वानप्रस्थ प्रारम्भ कर छ: मास, एक वर्ष अथवा दो वर्ष तक गृह चार आश्रम थे। गौतमधर्मसूत्र (३.२) में ब्रह्मचारी, गृहके प्राङ्गण में दस कोष्ठक खींचकर उनमें भगवान् का स्थ, भिक्षु और वैखानस चार आश्रमों के नाम हैं । वसिष्ठपूजन करना चाहिए। इससे व्रती की समस्त आशाओं धर्मसूत्र (७.१-२) ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और तथा कामनाओं की पूर्ति होती है । दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड परिव्राजक का उल्लेख करता है। १. ९७७-९८१; व्रतराज ३५६-७। आश्रमों का सम्बन्ध विकास कर्म के साथ-साथ जीवन आशादित्य व्रत-आश्विन मास के रविवार को व्रत का के मौलिक उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से भी थाअनुष्ठान प्रारम्भ कर एक वर्षपर्यन्त सूर्य का उसके ___ ब्रह्मचर्य का सम्बन्ध मुख्यतः धर्म अर्थात् संयम-नियम से, बारह विभिन्न नामों से पूजन होना चाहिए । दे० हेमाद्रि, गार्हस्थ्य का सम्बन्ध अर्थ-काम से, वानप्रस्थ का सम्बन्ध व्रतखण्ड, ५३३-३७ । उपराम और मोक्ष की तैयारी से और संन्यास का सम्बन्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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