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________________ आश्रमोपनिषद् मोक्ष से था । इस प्रकार उद्देश्यों अथवा पुरुषार्थों के साथ सन्तान उत्पत्ति द्वारा पितृऋण, यज्ञ द्वारा देवऋण और आश्रम का अभिन्न सम्बन्ध है । नित्य स्वाध्याय द्वारा ऋषिऋण चुकाना चाहिए (मनुस्मृति, जीवन की इस प्रक्रिया के लिए 'आश्रम' शब्द का ५.१६९) । वानप्रस्थ आश्रम में सांसारिक कार्यों से उदाचुनाव बहुत ही उपयुक्त था । यह शब्द 'श्रम्' धातु से सीन होकर तप, स्वाध्याय, यज्ञ, दान आदि के द्वारा वन में बना है, जिसका अर्थ है "श्रम करना, अथवा पौरुष दिख- जीवन विताना चाहिए ( मनुस्मृति ६. १-२) । वानप्रस्थ लाना" (अमरकोश, भानुजी दीक्षित )। सामान्यतः समाप्त करके संन्यास आश्रम में प्रवेश करना होता है। इसके तीन अर्थ प्रचलित है-(१) वह स्थिति अथवा स्थान इसमें सांसारिक सम्बन्धों का पूर्णतः त्याग और परिव्रजन जिसमें श्रम किया जाता है, (२) स्वयं श्रम अथवा तपस्या ( अनागारिक होकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते और (३) विश्रामस्थान । रहना) विहित है (मनु०-६.३३) । दे० पृथक्-पृथक् विभिन्न वास्तव में आश्रम जीवन की वे अवस्थाएं हैं जिनमें आश्रम । मनुष्य श्रम, साधना और तपस्या करता है और एक अव- वर्ण और आश्रम मनुष्य के सम्पूर्ण कर्तव्यों का समाहार स्था की उपलब्धियों को प्राप्त कर तथा इनसे विश्राम करते हैं । परन्तु जहाँ वर्ण मनुष्य के सामाजिक कर्तव्यों लेकर जीवन के आगामी पड़ाव की ओर प्रस्थान का विधान करता है वहाँ आश्रम उसके व्यक्तिगत कर्तव्यों करता है। का। आश्रम व्यक्तिगत जीवन की विभिन्न विकास-सरणियों __ मनु के अनुसार मनुष्य का जीवन सौ वर्ष का होना का निदेशन करता है और मनुष्य को इस बात का बोध चाहिए ( शतायुर्वं पुरुषः ) अतएव चार आश्रमों का विभा- कराता है कि उसके जीवन का उद्देश्य क्या है, उसको जन २५-२५ वर्ष का होना चाहिए । प्रत्येक मनुष्य के जीवन प्राप्त करने के लिए उसको जीवन का किस प्रकार में चार अवस्थाए स्वाभाविक रूप से होती हैं और मनुष्य संघटन करना चाहिए और किन किन साधनों का उपयोग को चारों आश्रमों के कर्तव्यों का यथावत् पालन करना करना चाहिये । वास्तव में जीवन की यह अनुपम और चाहिए । परन्तु कुछ ऐसे सम्प्रदाय प्राचीन काल में थे उच्चतम कल्पना और योजना है। अन्य देशों के इतिहास और आज भी हैं जो नियमतः इनका पालन करना आव- में इस प्रकार की जीवन-योजना नहीं पायी जाती है । श्यक नहीं समझतं । इनके मत को "बाध' कहा गया है । प्रसिद्ध विद्वान् डॉयसन ने इसके सम्बन्ध में लिखा है : कुछ सम्प्रदाय आश्रमों के पालन में विकल्प मानते हैं "हम यह कह नहीं सकते कि मनुस्मृति तथा अन्य स्मृअर्थात् उनके अनुसार आश्रम के क्रम अथवा संख्या में तियों में वर्णित जीवन की यह योजना कहाँ तक व्यावहाहेरफेर हो सकता है। परन्तु सन्तुलित विचारधारा रिक जीवन में कार्यान्वित हुई थी। परन्तु हम यह स्वीकार आश्रमों के समुच्चय में विश्वास करती आयी है । इसके करने में स्वतन्त्र हैं कि हमारे मत में मानव जाति के अनुसार चारों आश्रमों का पालन क्रम से होना चाहिए। सम्पूर्ण इतिहास में ऐसी कोई विचारधारा नहीं है जो जीवन के प्रथम चतुर्थांश में ब्रह्मचर्य, द्वियीय चतुर्थांश में इस विचार की महत्ता की समता कर सके।” ( दे० गार्हस्थ्य, तृतीय चतुर्थांश में वानप्रस्थ और अन्तिम चतु- 'आश्रम' शब्द, 'इनसाइक्लोपीडिया, रेलिजन और ईथिथांश में संन्यास का पालन करना चाहिए। इसके अभाव क्स' में । ) में सामाजिक जीवन का सन्तुलन भंग होकर मिथ्याचार आश्रमव्रत-चैत्र शुक्ल चतुर्थी को प्रारम्भ कर वर्ष को चारअथवा भ्रष्टाचार की वृद्धि होती है। चार महीनों के तीन भागों में विभाजित करके पूरे वर्ष विभिन्न आश्रमों के कर्तव्यों का विस्तृत वर्णन आश्रम- इस व्रत का आचरण करना चाहिए । वासुदेव, संकर्षण, धर्म के रूप से स्मृतियों में पाया जाता है । संक्षेप में मनु- प्रद्यम्न तथा अनिरुद्ध का वर्ष के प्रत्येक भाग में क्रमशः पाश्रमों के कर्तव्य नीचे दिये जा रहे हैं-ब्रह्मचर्य पूजन होना चाहिए। दे० विष्णधर्मोत्तर पराण, ३.१४२. आश्रम में गुरुकुल में निवास करते हुए विद्यार्जन और व्रत १-७ । का पालन करना चाहिए ( मनुस्मृति, ४.१)। दूसरे आश्रमोपनिषद्-एक परवर्ती उपनिषद, जिसमें संन्यासी की आश्रम गार्हस्थ्य में विवाह करके घर बसाना चाहिए; पूर्वावस्था का विशद वर्णन है। इससे संन्यासी की सांसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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