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________________ जैन आगम वाद्य कोश में इसकी वादन विधि का विशद वर्णन किया गया है। डमरूह (डमरुक) निसि. १७/१३६ डमरु, बुदबुदके, कुडुकुडुप्पे (दक्षिण भारत), नगाचंग (तिब्बत) आकार - रेत घड़ी, बालु घड़ी के समान । विवरण- शंकर का प्रतीक चिह्न डमरु अतीत में शास्त्रीय संगीत का प्रमुख वाद्य था लेकिन वर्तमान में इसे लोक और आदिवासी संगीत में ही उपयोग करते हैं। अनेक किस्मों वाला यह वाद्य डमरु १० सेमी. से दो हाथ तक लम्बा तथा बीच में एकदम पतला होता है। इसके मुख का व्यास लगभग एक मुट्टी होता है, जो पतले चमड़े से ढका रहता है। ये चमड़े दोनों ओर से एक पतली रस्सी से कसे रहते हैं। इस रस्सी के मध्य में, जहां वाद्य पतला होता है, रस्सी के ऊपर एक कड़े के समान रस्सी कसी रहती है और उसके दोनों छोर लटकते रहते हैं। इन्हीं दोनों सिरों पर एक-एक घुण्डी बनी होती है। इसे सीधे हाथ से मध्य स्थान पर पकड़ कर हाथ घुमाया जाता है जिससे घुण्डियां मुखों पर प्रहार कर शब्द उत्पन्न करती हैं। Jain Education International १५ वर्तमान समय में जोगी लोग डमरु के दोनों ओर की घुण्डियों को बाएं हाथ से पकड़ कर दाहिने हाथ से बेंत के एक टेढ़े टुकड़े से बजाते हैं। वर्तमान शिव मन्दिरों में इस सामान्य आकार से लगभग तिगुना अथवा चौगुना बड़ा डमरु होता है। इस बड़े आकार के डमरु का रूप प्रायः वर्तमान हुडुक जैसा ही होता है किन्तु वादन-भेद के कारण इसे डमरु ही कहा जाता है। दक्षिण भारत में डमरु को बुदबुदके के अथवा कुडकुडुप्पे के नाम से जानते हैं। तिब्बत और निकटवर्ती क्षेत्रों का डमरु अपनी रचना और वादन के अवसरों के कारण बहुत दिलचस्पी का कारण बनता है, जिसे स्थानीय भाषा में नगाचंग कहते है। उत्तर भारत में डमरू का विशेष प्रयोग बन्दर, भालू आदि का नाच दिखाने के लिए किया जाता है। डिंडिम (डिण्डिम) राज. ७७, जीवा. ३/५८८ डिण्डिमा, तबुल आकार - पणव वाद्य से कुछ छोटा । विवरण- इस वाद्य की लम्बाई एक या सवा हाथ की होती है। दोनों मुखों का व्यास पौन हाथ होता है। ढांचा कठोर लकड़ी से बनाया जाता है। दोनों मुख चमड़े से मढ़े जाते हैं। दोनों मुखों के घेरे में चमड़े की डेढ़ अंगुल घनता की कुण्डली बांधी जाती है। बांयीं ओर का मुख कुण्डली के अंदर है। दाहिनी ओर की कुण्डली सीधी है। दाहिने मुख को हाथ से बजाते है और बांये मुख को एक बित्तालुम्बी लकड़ी से इस वाद्य को गले और दाहिने पार्श्व में टांग कर बजाते हैं। इसके शब्दों में डिङ्, डिङ् मुख्य है। इसी कारण से इनका नाम 'डिङ डिङ' पड़ा। इस वाद्य का प्रयोग दक्षिण भारत में ही विशेष रूप से होता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.016097
Book TitleJain Agam Vadya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size5 MB
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