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________________ ८२ जैन पारिभाषिक शब्दकोश प्रहासमिश्रं मोहोद्दीपकं कर्मेति भावः। तिविहे करणे पण्णत्ते, तं जहा-मणकरणे, वइकरणे, (उपा १.३९ वृ प १७) कायकरणे। (स्था ३.१५) ६. इन्द्रिय। कपाट इन्द्रियं-करणम्। (स्था ५.१७६ वृ प ३१९) केवलिसमुद्घात के दूसरे और सातवें समय की स्थिति में ७. शरीर का सघन चेतनामय वह स्थान (चैतन्य केन्द्र)। आत्म-प्रदेश शरीर के बाहर निकल कर दण्डाकार फैल जाते जिसके माध्यम से अतीन्द्रिय-ज्ञान रश्मियां बाहर निकलती हैं। वह दण्ड ऊंचाई-निचाई में लोक-प्रमाण होता है। पर उसकी मोटाई शरीर के बराबर ही होती है। दूसरे समय में (द्र सन्धि ) उक्त दण्ड पूर्व-पश्चिम या उत्तर-दक्षिण में फैलकर कपाटाकार ८. जिसका आचरण मुनि के द्वारा प्रयोजन होने पर किया (किंवाड के आकार का) बन जाता है। जाता है, जैसे-पिण्डविशुद्धि आदि। (देखें चित्र पृ ३४३) यत्त प्रयोजने आपन्ने क्रियते तत्करणम्""पिण्डविशुद्धयादि 'बिइए कवाडं करेइ'त्ति द्वितीयसमये तु तमेव दण्डं पूर्वापरदिग्द्वयप्रसारणात्पावतो लोकान्तगामिकपाटमिव कपाटं । तु प्रयोजने समापन्ने क्रियते। (ओनिवृ प १४) करोति। (औप १७४ ७ प २०९) करण अपर्याप्त (द्र केवलिसमुद्घात) वह जीव, जो भविष्य में पर्याप्त होगा, पर अभी तक हुआ करण नहीं है। १. मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति का हेतुभूत जीववीर्य, ये पुनः करणानि, शरीरेन्द्रियादीनि न तावन्निवर्तयन्ति, अथ जो कर्म के बंध, संक्रमण आदि आठ अवस्थाओं में निमित्त चावश्यं निवर्तयिष्यन्ति ते करणापर्याप्ताः। (प्रज्ञाव प २६) बनता है। करणगुणश्रेणि चउबिहे करणे पण्णत्ते, तं जहा-मणकरणे, वईकरणे, क्षपक श्रेणि। वह परिणामधारा, जो मोह को क्षीण करने में कायकरणे, कम्करणरे। (भग ६.५) समर्थ है। (द्र कर्मकरण) करणेन-अपूर्वकरणेन गुणहेतुका श्रेणि: करणगुणश्रेणिः २. पर्याप्तिनिर्माण की क्रिया. पौदगलिक शक्ति। सर्वोपरितनस्थितेर्मोहनीयादिकर्मदलिकान्युपादायोदयसमयापर्याप्ति: पुद्गलरूपात्मनः कर्तुः करणविशेषः । त्प्रभृति द्वितीयादिसमयेष्वसंख्यातगुणपुद्गल"करणगुण(तभा ८.१२ वृ) श्रेणि: गृह्यते। (उ २९.७ शावृ प ७९) ३. आत्मा का विशिष्ट प्रकार का परिणाम । इसके तीन प्रकार करणवीर्य हैं-१. यथाप्रवृत्तिकरण २. अपूर्वकरण ३. अनिवृत्तिकरण। वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम अथवा क्षय और शरीरनाम परिणामविशेष: करणम्। (जैसिदी ५.७) कर्म के उदय से होने वाली क्रियात्मक क्षमता। यथाप्रवृत्त्यपूर्वाऽनिवृत्तिभेदात् त्रिधा। (जैसिदी ५.८) वीर्यान्तरायक्षयक्षयोपशमतो"लब्धिवीर्यकार्यभूता क्रिया ४. करण अर्थात् क्रिया, इसके तीन रूप बनते हैं-कृत, करणं तद्रूपं करणवीर्यम्। (भग १.३७६ वृ) कारित और अनुमत। करणं तिविहं-कतं कारितं अणुमतं। (दअचू पृ४१) करणसप्तति ५. करण अर्थात् कार्य की सिद्धि में साधकतम, इसके तीन प्रयोजनवश किए जाने वाले सत्तर अनुष्ठानों का संकलन है, प्रकार हैं-मन, वचन और काय। जैसे-चार पिण्डविशोधि, पांच समिति आदि। तेणेति साधकतमं करणं तइयाभिहाणओऽभिमयं। पिंडविसोही समिई भावण पडिमा य इंदियनिरोहो। केण तिविहेण भणिए मणेण वायाए काएणं ।। पडिलेहणगुत्तीओ अभिग्गहा चेव करणं तु॥ (विभा ३५२४) (ओनि ३) (द्र करण) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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